हिन्दी पत्रकारिता : रेडियो की प्रासंगिकता बरकरार
भारत में हर दिन कुछ खास दिन के रूप में मनाने की परंपरा रही है। ठीक उसी तरह प्रत्येक वर्ष 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 30 मई, 1826 से हुई।
हिन्दी पत्रकारिता : रेडियो की प्रासंगिकता बरकरार |
एक साप्ताहिक समाचार पत्र से शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का सफर आज इस मकाम तक पहुंच गया है जिसकी शायद ही कल्पना ‘उदन्त मार्तण्ड’ के संपादक और मालिक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने की होगी।
आज हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में हर दिन किसी न किसी रूप में नये कीर्तिमान बन रहे हैं। पत्रकारिता का माध्यम केवल समाचारपत्रों तक सीमित न रह कर इसका क्षेत्र काफी व्यापक हो चुका है। आज इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया से लेकर दिनोंदिन प्रसार करती पत्रकारिता अपने बेहतरीन दौर से गुजर रही है। उसी के साथ पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा चैलेंज है कि वह अपनी विश्वसनीयता को बरकरार रख सके। दावे से कहा जा सकता है कि आज हिन्दी पत्रकारिता दो सौ सालों बाद भी अपनी विश्वसनीयता चौबीस कैरेट सोने की तरह बचाए हुए है।
पत्रकारों के समक्ष बड़ी चुनौती रही है कि अपने बौद्धिक झुकाव से अप्रभावित होकर अपने पेशेगत दायित्व का निवर्हन करें। कहने में गुरेज नहीं कि इस कसौटी पर पत्रकार खरे उतरे हैं, और उन्होंने पूरे जज्बे के साथ पत्रकारीय भूमिका का नवर्हन किया है। उस दौर को याद करने के बाद ही जिस्म में सनसनाहट होने लगती है कि कैसे पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने मुफलिसी और गुरबत में एक साप्ताहिक समाचार पात्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ की शुरु आत की होगी।
न तो उस समय इतने संसाधन रहे होंगे और न ही आज की तरह हिन्दी पत्रकारिता में आपार संभावनाएं। लेकिन फिर भी आज से दो सौ साल पहले पंडित जुगल किशोर शुक्ल की दूरदर्शी सोच ने हिन्दी पत्रकारिता की नींव डाल कर हिन्दी भाषा के लिए एक रास्ता प्रदान किया था। आज जब बात हिन्दी पत्रकारिता की हो रही है तो यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज हिन्दी साहित्य युवाओं के जीवन से गायब होता जा रहा है। अब युवाओं में पढ़ने की आदत खत्म सी होने लगी है। एक समय था जब देश के नामचीन साहित्यकार ही पत्रकारिता के क्षेत्र में सेवाएं देते थे। युवाओं में साहित्य के प्रति कम होती दिलचस्पी के पीछे एक सबसे बड़ा कारण बदलते जमाने में डिजिटल होती दुनिया को भी माना जा रहा है है।
बात यहां पत्रकारिता से थोड़ा बहुत मुड़ कर जब साहित्य पर आ गई है तो मेरा यह भी मानना है कि अगर कोई पत्रकारिता के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है तो सबसे पहले उसे साहित्य की समझ जरूर होनी चाहिए या कह सकते हैं कि उसे भाषा की जानकारी बहुत जरूरी है। क्योंकि यह भी सच है कि एक लेखक के पास जितने शब्दों का भंडार होगा उसकी रिपोर्ताज में उतनी ही ताकत और खूबसूरती आएगी।
चूंकि अपनी बात सही ढंग से दूसरों तक पहुंचाने का सिर्फ एक माध्यम है, और वह है भाषा का माध्यम। जब बात हिन्दी पत्रकारिता की होगी तो रेडियो उससे अछूता नहीं रह सकता है। रेडियो की विश्वसनीयता समाज के हर वर्ग में आज बभी बरकरार है। रेडियो ने अपनी विश्वसनीयता को अपने प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक मजबूती से बनाए रखा है। आप उस दौर को याद कीजिए जब भारत वर्ष में स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश में शिक्षा का अभाव था, उस समय रेडियो समाचार और मनोरंजन का एकमात्र साधन हुआ करता था। आज भी देश के सुदूर इलाकों में रेडियो ही सूचना का एकमात्र माध्यम है।
रेडियो की विश्वसनीयता और लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने साप्ताहिक ‘मन की बात’ कार्यक्रम को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रेडियो को ही एक माध्यम के रूप में चुना। रेडियो ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में भी अहम भूमिका निभाई है विशेषकर गैर-हिन्दी प्रदेशों में लोगों ने रेडियो सुन-सुन कर हिन्दी सीखी है। यह गैर-हिन्दी प्रदेशों के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। आकाशवाणी ने भारत की करोड़ों जनता को हिन्दी से जोड़ा और प्रवासी भारतीयों को भी भारत से जोड़े रखने में अपना बड़ा योगदान दिया है।
इंटरनेट के प्रसार के साथ-साथ लोगों के लिए सूचना और मनोरंजन के साधन में भी बदलाव आए हैं।
मगर आज तक जो एक चीज नहीं बदली है, वह है रेडियो के प्रसारण और ट्रांजिस्टर से निकलने वलवली संगीत से घंटों चिपके लोगों की बेकरारी। इंटरनेट का जमाना है। अब तो रेडियो सुनना और भी आसान हो गया है। अगर आप किसी वजह से खबरें नहीं सुन पाए हैं, तो आज कल आकाशवाणी पर प्रसारित बुलेटिन यूट्यूब के माध्यम से सुन सकते हैं। इसके अलावा, आकाशवाणी के पुराने और विख्यात उद्घोषकों की कई ऐसी पुरानी वीडियो भी आपको सोशल मीडिया पर मिल जाएंगी जिनको सुनकार आप अनुभव कर सकते हैं कि हिन्दी भाषा का असल मायने क्या होता है।
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