प्रकाश प्रदूषण : बर्बाद हो रही पारिस्थितिकी

Last Updated 21 Sep 2023 01:36:22 PM IST

सभ्यता के विकास के क्रम में ‘अरनी’ की पट्ट्यिों से आग की खोज कर मनुष्य ने गुफाओं में मशाल जलाई। फिर अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले मशाल ने दीपक, दीया का रूप लिया; जलाने के लिए सरसों तेल, तिल का तेल, घी से लेकर धरती के गर्भ से निकलने वाले केरोसिन, आदि का प्रयोग करते-करते 1880 में एडिसन के टंगस्टन बल्ब ने दिन-रात के अंतर को पाट डाला।


प्रकाश प्रदूषण : बर्बाद हो रही पारिस्थितिकी

डूबते सूरज की पीली रोशनी का अहसास लिए मनुष्य ने कालक्रम में भविष्य के लिए बिजली की बचत शुरू की और हमारे बीच फ्लोरोसेंट प्रकाश, फिर सोडियम वेपर से होते हुए आई दूधिया प्रकाश लिए एलईडी लाइट्स।

इस रोशनी ने देर रात अंधेरे में काम करना आसान भले ही कर दिया लेकिन अनजाने में मुसीबत भी आई। कृत्रिम प्रकाश के रूप में आई इस मुसीबत को नाम मिला प्रकाश प्रदूषण/लाईट पॉल्यूशन या फोटो पॉल्यूशन। कृत्रिम प्रकाश वैश्विक स्तर पर 1992 और 2017 के बीच लगभग 49% तक बढ़ गया। कुछ क्षेत्रों में तो 400% तक बढ़ा। अभी हमारी पृथ्वी अपने सबसे प्रकाशमान स्तर पर है। शहरों की चकाचौंध देखते हैं तो लगता है कि रात के हिस्से के अंधेरे को उद्योगों, सड़कों से लेकर गलियों की लाइटिंग, रिफलेक्टिव सतहों के प्रयोग, मुख्य सड़कों पर हाईमास्ट और स्ट्रीट लाइटिंग प्रकाश के स्रेतों के रूप में विभिन्न प्रकार की हैलोजन लाईट, टॉर्च, और प्रकाशीय उपकरणों से ढांप दिया गया है। ढंके हुए अंधेरे की वजह से अस्सी प्रतिशत से अधिक लोग और इतना ही भूभाग इस प्रदूषण की चपेट में हैं। यह आकाशी चमक/स्काई ग्लो के रूप में प्रवासी पक्षियों की आने-जाने की दिशा को प्रभावित कर रहा है, तो प्रकाश के अतिक्रमण से फोटॉन के इधर-उधर बिखरने (जो खिड़कियों के रास्ते आकर हमारी नींद और आंतरिक घड़ी यानी  सरकेडियन रिदम को प्रभावित कर रहा है) से हमारा व्यवहार और कार्य क्षमता बदल रहे हैं। जितनी प्रकाश की जरूरत है, उससे कई गुनी अधिक रोशनी धीरे-धीरे हमें अंधेरे की तरफ ढकेल रही है। आंखें रहते हुए भी हमारी दृष्टिबाधित हो रही है, और तारों को निहारने की हमारी क्षमता क्षीण होती जा रही है।

इस प्रदूषण ने एक तरह से सांस्कृतिक हानि भी पहुंचाई है। हमारा बचपन सपनों, कल्पनाओं और कहानियों को जानना-समझना भूलता जा रहा है। रात में दिन के अहसास ने हमारी बायोलॉजिकल क्लॉक को प्रभावित किया है। रात में जागने की क्षमता बढ़ती जा रही है, तो सुबह सूरज की रोशनी चढ़ने के बाद नींद खुलती है। रात की टुकड़े-टुकड़े वाली नींद कैंसर और हृदय रोगों को बढ़ा रही है। चिड़ियों के जागने-सोने के समय में भी अंतर आ गया है। अध्ययन में पता चला है कि प्रकाश प्रदूषण के रंगों और तीव्रता में परिवर्तन से पिछले कुछ दशकों के दौरान जीव-जंतुओं की दृष्टि में अप्रत्याशित बदलाव आया है। पहले अंधेरे की आहट होते ही कीड़े-मकोड़े छुप जाते थे और आवाज से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे। प्रकाश प्रदूषण की वजह से प्रकाश की ओर आसक्त होते कीट-पतंगे अपनी मृत्यु को आमंत्रित करते हैं। शोधकर्ताओं ने कीट-पतंगों और उनका शिकार बनाने वाले पक्षियों की दृष्टि पर रोशनी के प्रभाव की जांच में पाया कि शिकार और शिकारी के बीच के संबंध बदल रहे हैं।

अंधेरे का अहसास हुए बिना उल्लू अपना शिकार नहीं पकड़ सकते। अब प्रकाश की अधिकता में उल्लू ध्वनि तरंगों को पकड़ अपने शिकार तक नहीं पहुंच पा रहा। इस प्रकाश भ्रम में पुरु ष कीड़ों के प्रजनन के तरीके भी बदल रहे हैं। दिन में निषेचन करने वाले ये कीट रात्रि के प्रकाश में मादा को निषेचित करने लगे हैं। चांद और तारों की रोशनी अंधेरे में समुद्री जीवों के लिए महत्त्वपूर्ण संकेतक के रूप में कार्य  करते हैं, जो उनके दिशा ज्ञान में मददगार होते हैं। कृत्रिम प्रकाश में उनकी चमक आसानी से धूमिल पड़ जा रही  है, जो समुद्री जीवों को उनके पथ से भटका रही है। पेड़-पौधे भी प्रकाश की उपस्थिति को लेकर भ्रमित हो सकते हैं। फूलों का खिलना, पत्तियों का झड़ना कुछ हद तक प्रकाश की उपस्थिति पर ही निर्भर होता है। आज प्रकाश की अधिकता ने दिन-रात का संवेदनशील संतुलन बिगाड़ दिया है, जिसने पेड़-पौधों सहित तमाम जीव-जंतुओं की शारीरिक कार्यिकी को प्रभावित किया है। इसका शिकार संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र, जिसमें मानव समाज भी शामिल है, हो रहा है।

प्रकाश प्रदूषण अन्य प्रदूषण की तरह ही समझा जाना चाहिए जैसे रासायनिक बहाव या गैस रिसाव की तरह, आपके द्वार और सड़क को प्रकाशित करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे फोटॉन अनजाने में आसपास के क्षेत्रों में प्रवाहित होकर पौधों से लेकर शीर्ष प्राणियों जैसे सभी स्तरों पर स्थानीय पारिस्थितिकी को प्रभावित करते हैं। हमने जैसे अन्य प्रदूषणों को कम करने के क्षेत्र में कार्य किया है, उसी प्रकार अब जरूरत है कि प्रकाश प्रदूषण को कम करने के विकल्पों की तलाश की जाए क्योंकि किसी रसायन की तरह ही वातावरण में बहता फोटॉन जीवों की आंतरिक क्लॉक को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है।

कुशाग्र राजेंद्र


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