एक देश, एक चुनाव : आसान नहीं सहमति

Last Updated 05 Sep 2023 01:12:29 PM IST

सितम्बर 18 से 22 तक संसद सत्र बुलाने तथा पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक साथ चुनाव पर सुझाव देने के लिए समिति गठन की घोषणा ने विमर्श को एकाएक बदल दिया है।


एक देश, एक चुनाव : आसान नहीं सहमति

इस समय विशेष संसद सत्र और एक साथ चुनाव स्वाभाविक ही सबसे बड़े बहस का मुद्दा है। मुंबई में आयोजित इंडिया की बैठक में भी यह मुद्दा उठा तथा वहां से आने वाली प्रतिक्रियाओं में यह शीर्ष पर था। कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रणनीति ने ऐसी स्थिति पैदा की, जिसमें सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाला राजग एजेंडा तय कर रहा है।

संसद का विशेष सत्र बुलाने का अर्थ है कि सरकार कुछ विशेष चर्चा कराना चाहती है। राष्ट्रपति की अध्यक्षता में समिति का गठन और उसमें शामिल सदस्यों को देखें तो कहना पड़ेगा कि सरकार एक साथ चुनाव पर गंभीर है। पहले किसी मामले पर पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में समिति का गठन नहीं हुआ था। अगर 18 सितम्बर के संसद सत्र को ध्यान में रखें उसमें एक साथ चुनाव संबंधी एजेंडा हो तो ऐसा लग सकता है कि समिति को इतना कम समय नहीं मिलना चाहिए था। वैसे संसद के विशेष सत्र का एजेंडा इन पंक्तियों के लिखे जाने तक स्पष्ट नहीं है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि प्रधानमंत्री द्वारा 2015 से इसकी चर्चा की जाती रही है और इस पर पूरी बहस हुई है। संविधानिवदों से लेकर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं आ चुकी हैं। कई अनुशंसाएं एवं रिपोर्ट भी हैं। सबसे पहले सन 1999 में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में लोक सभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने की बात कही गई थी, जिसमें इससे संबंधित कुछ बिंदुओं का उल्लेख था।

सन 2015 में कार्मिंक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय मामलों की संसदीय समिति ने इसकी सिफारिश की। अगस्त 2018 में फिर विधि आयोग की रिपोर्ट आई, जिसमें दो चरणों में चुनाव कराने का सुझाव दिया गया था। दिसम्बर 2022 में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, नौकरशाहों, शिक्षाविदों और विशेषज्ञों सहित सभी हितधारकों की राय मांगी थी। इन सबके साथ सन 2017 में नीति आयोग ने एक अध्ययन दस्तावेज जारी किया था, जिसमें उसने संसदीय समिति के दो चरणों में सुझाव को स्वीकार किया था। विरोधी आशंका उठा रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव को आगे खींचना चाहते हैं तथा ऐसी स्थिति में चुनाव कराने के इच्छुक हैं, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर उनका नाम सबसे ऊपर हो और लोक सभा तथा विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी को लाभ मिल जाए। चुनाव को एक साथ करने में सबसे बड़ी बाधा विधान सभाओं का कार्यकाल ही है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राजस्थान और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव लोक सभा चुनाव के कुछ ही महीने पहले तथा महाराष्ट्र और हरियाणा के कुछ महीने बाद होते हैं। स्वाभाविक ही इन विधानसभाओं का चुनाव टल सकता है, लेकिन केवल विधान सभा चुनाव टालकर लोक सभा चुनाव के साथ करने के लिए कोई सरकार इतना बड़ा कदम नहीं उठा सकती। मुख्य बात है कि क्या एक साथ लोक सभा एवं विधानसभा चुनाव करना यथेष्ट है?

क्या वाकई इसकी आवश्यकता है और यह भारतीय लोकतंत्र को आज से बेहतर स्थिति दे सकता है? 1967 तक सभी चुनाव निश्चित समयावधि में साथ ही होते थे। 1967 में कांग्रेस के एकाधिकार टूटने, आठ राज्यों में दूसरे दलों की गठबंधन सरकारें, जिन्हें तब संविद सरकार कहा गया था गठित होने तथा उनके असमय गिर जाने या गिरा दिए जाने से समस्या शुरू हुई। बताने की आवश्यकता नहीं कि लगातार चुनाव के कारण न केवल आर्थिक बोझ बढ़ता है बल्कि पूरी मशीनरी लगानी पड़ती है। विधि आयोग ने 2018 की अपने अनुशंसा में अलग-अलग चुनाव खचरे का आकलन कर बताया कि एक साथ चुनाव से भारी संसाधन बचेंगे। सबसे बड़ी बात कि राजनीतिक दलों में आवश्यक राष्ट्रीय या जनता के हितों संबंधी मुद्दों पर भी एकता नहीं हो पाती। सभी दल अपने मतदाताओं को संबोधित करने के लिए विवश रहते हैं। चुनाव भले विधानसभा के हों, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति और हमारे सांसद भी इसके शिकार होते हैं। संबंधित दल राष्ट्रीय स्तर पर भी राज्य के चुनावी हितों का ध्यान रखते हुए ही भूमिका निभाकर संदेश देते हैं। आचार संहिता लागू हो जाने के बाद सरकार चाहे भी तो आवश्यक विकास एवं जन कल्याण के लिए कदम नहीं उठा सकती।

हर वर्ष भारत में औसत चार राज्य विधानसभा के चुनाव होते हैं। इसके साथ स्थानीय निकायों के भी चुनाव चलते रहते हैं। लोक सभा से लेकर विधान सभा एवं स्थानीय निकायों को ध्यान में लाइए और सोचिए कि आचार संहिताओं का कितना बड़ा असर अभी तक देश पर हुआ होगा। हर निष्पक्ष और विवेकशील व्यक्ति इस स्थिति को बदलने की चाहत रखता है। प्रश्न है कि क्या यह संभव है? संविधान एक साथ चुनाव का निषेध नहीं करता, लेकिन लोक सभा और अलग-अलग राज्यों की विधान सभा के कार्यकाल में इतना बड़ा अंतर आ गया है कि इसे पाटना आसान नहीं होगा। हां, इसके लिए कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना पड़ेगा तो कुछ का घटाना होगा। 2018 में विधि आयोग ने अपनी अनुशंसा में इसके लिए संविधान के अनुच्छेद- 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन का जिक्र किया था। इन धाराओं में संशोधन करके लोक सभा और विधान सभाओं के कार्यकाल बढ़ाए घटाएं जा सकते हैं। अनुच्छेद 356 आपातकालीन स्थिति है, जिनमें राज्य की कानून-व्यवस्था विफल होने या किसी सूरत में सरकार गठित न होने का आधार होता है।

जाहिर है, विधान सभा भंग करने के लिए 356 को संशोधित करना पड़ेगा। संविधान संशोधन आसान नहीं होगा। वैसे, राजनीतिक सहमति बन जाए तो 356 को छोड़ इन अनुच्छेदों में भी संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी। बहुमत की सरकार कभी भी विधान सभाओं व लोक सभा को भंग करने की सिफारिश कर सकती है। लोक सभा और विधान सभाएं ही नहीं स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक साथ एक अंतराल पर कर दिया जाए तो सरकार जनहित का ध्यान रखते हुए कठोर कदम उठाने पर भी दबाव में नहीं होगी। हालांकि इस बात की गारंटी नहीं है कि ऐसा हो जाने के बाद सरकारें असमय नहीं गिरेंगे। एक दल के बहुमत न होने पर गठबंधन सरकारी कभी भी जा सकते हैं। पर मूल बात सरकार के साथ सभी राजनीतिक दलों के इरादे और इच्छाशक्ति की है।

अवधेश कुमार


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