एक देश, एक चुनाव : बड़ी चुनौती के फायदे भी हैं बड़े
देश का राजनीतिक परिदृश्य इस समय ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ (एक देश, एक चुनाव) के विचार से गरमाया हुआ है। इसे लेकर अपोजिशन ‘इंडिया’ में एक तरह का हताशा है।
एक देश, एक चुनाव : बड़ी चुनौती के फायदे भी हैं बड़े |
नरेन्द्र मोदी सरकार ने लोक सभा और विधानसभाओं के चुनाव के एक साथ कराए जाने की संभावना पर विचार करने और उसको क्रियान्वित करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का ऐलान किया है।
कोविंद के जैसे सर्वोच्च पद-नामधारी का चयन मोदी सरकार की गंभीरता को दर्शाता है। कोविंद विधिवेत्ता हैं और उनकी छवि बेदाग राष्ट्रपति की रही है, इसकी बदौलत वे विपक्ष को ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर सहमत करने का प्रयास कर सकते हैं। समिति में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, लोक सभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी, राज्य सभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन.के. सिंह, लोक सभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष सी. कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी हैं।
इस तरह, यह संसद की स्थाई समिति, विधि आयोग और नीति आयोग के बाद चौथी समिति होगी जो इस पर विचार करेगी। अगर कोविंद कमेटी की सिफारिशें मान ली जाती हैं तो बेल्जियम, स्वीडन और दक्षिण अफ्रीका के बाद भारत ‘एक देश एक चुनाव’ कराने वाला विश्व का चौथा देश हो जाएगा। कोविंद कमेटी के ऐलान के पहले, मोदी सरकार ने ‘भारत की तरक्की’ पर विचार के लिए 18-23 सितम्बर को संसद का विशेष सत्र बुलाने की बात कही है। विपक्ष का मानना है कि सरकार संसद में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर विधेयक ला सकती है। यह काम मोदी सरकार ने महाराष्ट्र में हो रहे ‘इंडिया’ की बैठक और उसमें बनने वाली आम सहमति को सुर्खियां बनने से रोकने के लिए किया है।
विपक्ष इसे ‘आम जन का ध्यान भटकाने वाला’ और एक ‘रणनीतिक दांव’ करार दिया है। इसके जरिए उसे स्थानीय मुद्दों पर राष्ट्रवाद को वरीयता देनी है और इस तरह से मतदाताओं पर अपना प्रभाव में लेना है। इसका चुनाव प्रक्रिया के सरलीकरण से कोई लेना-देना नहीं है। यह भाजपा का राज्यों की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश है, जिसमें वह सफल नहीं हो पा रही है। नरेन्द्र मोदी को जब भी गंभीर चुनौतियां मिलती हैं, जैसे कि‘इंडिया’ की मीटिंग होती है, अदानी के खिलाफ आरोप लगाए जाते हैं, और चीन के जारी नक्शे की बात होती है, जिसमें अरु णाचल प्रदेश को उसका हिस्सा दिखाया गया है, या देश में गरीबी के बढ़ने या मणिपुर को लेकर उनकी आलोचना की जाती है, तब वे ऐसे मुद्दों को उठा कर ध्यान भटकाते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पॉलिटिक्स में स्ट्रोक की टाइमिंग का अपना महत्त्व है। अगर भाजपा और उसके नेता नरेन्द्र मोदी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत राजनीति में हैं तो उन्हें ऐसा करने का विपक्ष की तरह ही पूरा अधिकार है। पर विचारणीय है कि क्या ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ भाजपा या प्रधानमंत्री मोदी का निजी या आविष्कृत किया हुआ विचार है? कुछेक लोग इसे संघ (आरएसएस) का प्रच्छन्न एजेंडा मानते हैं। हालांकि ये दोनों बातें नहीं हैं।
दरअसल, एक साथ चुनाव कराने का विचार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत की धमनियों में रचा-बसा, पक-पकाया और आजमाया हुआ विचार है। यह भारत के लिए नया नहीं है। संविधान के गठन के साथ ही, 1951-52 के पहले आम चुनाव से लेकर 1967 तक के चुनाव लोक सभा एवं विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते रहे हैं। परंतु 1959 के जुलाई में केरल में विधानसभा भंग करने के साथ 1967-68 में विधानसभाओं के पुनर्गठन एवं विघटन के बाद से, और फिर 1970 के दिसंबर में लोकसभा के विघटन के बाद से यह प्रक्रिया ठप पड़ गई और चुनाव अलग-अलग होने लगे। इस अवधि तक तो केंद्र और अधिकतर राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी।
फिर वामदल और अन्य क्षेत्रीय दलों की सरकारें थीं। भाजपा (पूर्व जनसंघ) की कहीं सरकार नहीं थी। और तो और जब निर्वाचन आयोग ने 1983 में अपनी एक रिपोर्ट में फिर से सभी चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था, तब भी यही बात थी। विधि आयोग ने 1999 की अपनी रिपोर्ट में भी निर्वाचन आयोग के सुझाव का हवाला दिया था। तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। तो क्या इस पर वाजपेयी का प्रभाव था? इस नजरिए से तो भाजपा भी 1983 की रिपोर्ट पर कांग्रेस सरकार की छाप मानेगी? इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा और उसके नेता विपक्ष में रहते हुए भी निकायों से लेकर विधानसभा व लोक सभा चुनाव एक साथ कराए जाने के शुरू से पक्षधर रहे हैं-लालकृष्ण आडवाणी इसके सबसे बड़े पैरोकार रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे को 2014 के मैनिफेस्टो में रखा था। इसके बाद सत्ता में आए नरेन्द्र मोदी सालों भर देश के किसी न किसी हिस्से में कोई न कोई होने वाले चुनाव और इसके तहत लागू होने वाली आदर्श संहिताओं से प्रशासन और विकास में काम में आने वाली बाधाओं एवं करोड़ों के खर्च से बचाव पर विचार की बात कही थी। इसका बोझ भारत जैसा बनता हुआ देश वहन नहीं कर सकता। इसके साथ ही सुरक्षाकर्मिंयों की लंबे समय तक तैनाती में भी कटौती हो जाएगी।
नीति आयोग ने भी इसी मुद्दे पर जनवरी 2017 में एक मसौदा तैयार किया था। बाद में विधि आयोग ने भी अप्रैल 2018 में एक मसौदा बनाया था, जिसमें कहा था कि संविधान के मौजूदा ढांचे में एक साथ चुनाव नहीं कराया जा सकता। इसके लिए जनप्रतिनिधि अधिनियम 1951 और लोक सभा एवं विधानसभाओं के चुनाव कराए जाने के नियमों की प्रक्रिया में आमूल बदलाव करने के साथ संविधान में पांच संशोधन करने होंगे। फिर इन संवैधानिक संशोधनों पर देश के 50 फीसद राज्यों का अनुमोदन जरूरी है। इसके साथ ही आयोग ने यह भी कहा था कि ऐसे चुनाव रातों-रात नहीं कराए जा सकते। हालांकि एक साथ चुनाव कराए जाने की वांछनीयता की अपनी दुारियां भी हैं। एक साथ चुनाव कराए जाने पर बड़े पैमाने पर ईवीएम और वीवीपीएटी मशीनों के लिए 9284.15 करोड़ रु पये की जरूरत पड़ेगी। इन मशीनों को प्रत्येक 15 वर्ष पर रिप्लेस करने की जरूरत पड़ेगी, जो चुनाव खर्च को और बढ़ाएगा। इसके अलावा, इन मशीनों को रखने के लिए बड़े गोदाम की जरूरत पड़ेगी।
इनके बावजूद, एक साथ चुनाव कराने में अड़चन खर्चे या संविधानिक संशोधन की कठिन प्रक्रिया से अधिक बात राजनीतिक इच्छाशक्ति की है। दूसरे, क्षेत्रीय पार्टयिों का यह डर भी है कि पुरानी प्रक्रिया पर अमल करने से उनके क्षेत्रीय और प्रादेशिक मुद्दे राष्ट्रवाद के नारे में घुल जाएंगे और उनकी पहचान संकट में पड़ जाएगी। इसलिए ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के विचार का विरोध अधिकतर बसपा, द्रमुक, तृमूकां जैसी पार्टयिां या उनके नेता कर रहे हैं। वे मानती हैं कि इसका फायदा कांग्रेस एवं भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को होगा। उनका यह डर इसलिए भी फिजूल है कि 2014 में लोक सभा चुनाव के साथ ओडिशा, आंध्र प्रदेश, सिक्किम और अरु णाचल विधानसभा चुनाव भी कराए गए थे, लेकिन इनके नतीजों मतदाताओं के राष्ट्रीय-प्रादेशिक वरीयताओं के मुताबिक हुए। चुनाव-विशेषज्ञ मानते हैं कि एक साथ चुनाव का घाटा से ज्यादा फायदा है। हमें फायदे के हिसाब से चलना चाहिए।
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