चुनाव सुधार : सियासी दलों पर रहे नजर
वास्तविक मायनों में इस वक्त भारतीय लोकतंत्र एक चौराहे पर खड़ा है। एक तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था के लगातार मजबूत होने के दावे किए जा रहे हैं, दूसरी ओर निराश बेरोजगारों की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी होती जा रही है।
चुनाव सुधार : सियासी दलों पर रहे नजर |
एक तरफ तो यह लोकतंत्र स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी चुनाव तथा विशाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संपन्न कराने का दावा करता है, वहीं दूसरी तरफ इस लोकतंत्र में एक आम आदमी भी है जो सत्ता के केंद्रों और रोजमर्रा की जिंदगी के बीच बढ़ती दूरी से कुंठित होता जा रहा है। आम आदमी लोकतंत्र द्वारा दिखाए सपनों और वास्तविक जिंदगी के बीच झूल रहा है। राजनीतिक प्रक्रियाएं आश्चर्यजनक रूप से और अभूतपूर्व पैमाने पर खर्चीली हो गई हैं और उनकी संसाधनों पर निर्भरता बढ़ी है।
हम आजादी के 75 वर्ष पूरे कर चुके हैं और इस बीच हमने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक सुधारों के माध्यम से लोकतंत्र को मजबूत करने का प्रयास किया है। चुनाव सुधार इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हैं। नागरिक संगठनों की ओर से समय-समय पर चुनाव सुधार के लिए सुझाव दिए जाते हैं। बीच-बीच में न्यायपालिका द्वारा भी इस दिशा में अपने फैसलों और टिप्पणियों द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है। इसी प्रसंग में इन दिनों यह चर्चा गरम है कि क्या राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जा सकता है।
दरअसल, इस मुद्दे को मजबूती और कानूनी आधार केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा 2013 और 2015 में अपने फैसलों द्वारा दिया गया जिनमें राजनीतिक दलों को पब्लिक ऑथिरिटी या सार्वजनिक प्राधिकरण मानते हुए सूचना के अधिकार के अंतर्गत शामिल करने की बात कही गई। इन फैसलों के विरोध में आश्चर्यजनक रूप से सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में भीतरी सहमति है। इसकी वजह स्पष्ट है। सभी दल अपने पूंजीपति सहयोगियों और उनके द्वारा दिए गए चंदे को सार्वजनिक करने से डरते हैं। चुनाव में धन खर्च करने की सीमा निर्धारित करने के बावजूद राजनीतिक दल मनमाने ढंग से खर्च करते हैं। यह पैसा पूंजीपतियों से आता है। जाहिर है चुनाव जीतने के बाद जन-प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों को उन्हीं पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर नीतियां बनानी पड़ती हैं और काम करना पड़ता है जिन्होंने चुनाव में खर्च किया है।
कई बार यह पैसा पार्टी को दिए गए चंदे के रूप में आता है और कई बार सीधे उम्मीदवार को विभिन्न तरीकों से उपलब्ध करा दिया जाता है। राजनीतिक दलों के सूचना के अधिकार के दायरे में आने से जाहिर है राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा निगरानी में होगा और इससे चुनावों में धनबल की शक्ति घटेगी जो लोकतंत्र के लिए हितकारी होगा। चुनाव सुधार संबंधी विमर्श में पहले खर्च किए जाने वाले धन की अधिकतम सीमा पर बात होती थी, जबकि अब सभी प्रत्याशियों को एक समान आधार मुहैया कराने की बात की जा रही है। जहां एक तरफ कुछ प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों के पास अथाह संपत्ति है, वहीं दूसरी तरफ इसका गंभीर अभाव देखा जा सकता है। इसलिए सभी प्रत्याशियों को उचित और समान रूप से संसाधन उपलब्ध कराया जाना जरूरी है।
ऐसा नहीं है कि जो ज्यादा पैसा खर्च करेगा, वही चुनाव जीतेगा, लेकिन ऐसा जरूर है कि चुनाव में गंभीर रूप से भाग लेने के लिए एक न्यूनतम धन की आवश्यकता पड़ती है। अभी तक उपेक्षित जनता के उभार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इस बिंदु को और भी महत्त्वपूर्ण बना दिया है। चुनाव में आम लोग शामिल हो सके, इसके लिए चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी, आसान और सस्ता बनाया जाना जरूरी है। इसके लिए कुछ बिंदुओं पर काम किया जा सकता है। चुनावी खर्च को यथासंभव सीमित किया जाना चाहिए और इसे निर्धारित करने के लिए जन प्रतिनिधि अधिनियम में परिवर्तन करने होंगे ताकि पार्टी और मित्रों द्वारा किए जाने वाले खर्च को भी प्रत्याशी के खर्च में जोड़ा जा सके। साथ ही अनुच्छेद 77 में 1974 में किया गया संशोधन रद्द किया जाना चाहिए। चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा को वास्तविक बनाया जाना चाहिए और हर आमचुनाव के साथ इसका पुनरीक्षण किया जाना जरूरी है।
चुनावों में होने वाले खर्च से जुड़ी समस्या को ठीक करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं। इस संदर्भ में नागरिक संगठनों ने कई बार सुझाया है कि चुनावी खर्च पर सब्सिडी देने के लिए और वैध राजनैतिक गतिविधियों को समर्थन देने के लिए भारत के संचित कोष में से एक राष्ट्रीय निर्वाचन कोष का निर्माण किया जाना चाहिए। इसके लिए यह तरीका अपनाया जा सकता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जो पार्टी एक या दो प्रतिशत से अधिक वोट पाए, उसे प्रति वोट 10 या 20 रु पये के हिसाब से खर्च उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे राजनीतिक दलों और प्रतिनिधियों की पूंजीपतियों पर निर्भरता कम होगी। राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक बनाने के लिए इसके साथ यह भी करने की आवश्यकता है कि ऐसे दल, जो अपने हाईकमान या पार्टी पदाधिकारियों के चुनाव के लिए लोकतांत्रिक पद्धति का सहारा न लें, उन्हें इस तरह की सहायता न दी जाए। राजनीतिक दलों को सहायता देने वाले व्यक्तियों अथवा कंपनियों को आयकर में छूट की अधिकतम सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव लोकतंत्र के लिए जरूरी है और इसे सुनिश्चित करने के लिए नागरिक समाज को भी अपनी भूमिका निभानी चाहिए।
चुनावी खर्च की समस्या को सुलझाने के लिए नागरिक समाज द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए सामाजिक फंड उपलब्ध कराने के कार्य को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे राजनेताओं के अंदर भी जवाबदेही का भाव आएगा। राजनीतिक दलों के कामकाज में वैध धन को संस्थागत तरीके से उपलब्ध कराया जाए, जिससे कि उन्हें ऐसे पूंजीपतियों का सहारा न लेना पड़े जो बाद में उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने के बाधा पहुंचाते हैं। इस प्रकार राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने से चुनाव प्रक्रिया के एक बड़े रोग धनबल का उपचार करने में मदद मिलेगी। जाहिर है राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवारों के चयन का मसला सूचना के अधिकार के लिए चुनौतीपूर्ण होगा, इसलिए इसे मंथन के लिए छोड़ राजनीतिक दलों की शेष गतिविधियों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाना लोकतंत्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक होगा।
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