अमेरिका का पाक पर भरोसा
काबुल और एबटाबाद की दूरियां भले ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमाएं बढ़ा देती हों लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान की सेना की बिना मदद के अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए न तो एबटाबाद में लादेन को मार सकती थी और न ही काबुल में अल-जवाहिरी को।
अमेरिका का पाक पर भरोसा |
दरअसल, अमेरिका को न तो मध्य पूर्व के अरबों पर भरोसा है, और न ही तालिबान पर। अमेरिकियों का भरोसा पाकिस्तान की सेना पर है, और यह साझेदारी 1950 के दशक से चली आ रही है।
पिछले आठ दशकों में अमेरिका और पाकिस्तान में सरकारें और सत्ता भले ही परिवर्तित होती रही हों लेकिन पाकिस्तान और अमेरिका के सैन्य संबंध हमेशा मजबूत रहे हैं। अमेरिकी सैन्य योजनाकारों का मानना है कि कराची और लाहौर में मौजूद अमेरिकी बमवषर्क मध्य-पूर्व की तेल सुविधाओं और साम्यवादी दुश्मन रूस तक आसानी से पहुंच सकते हैं। इसीलिए अमेरिका के लिए उसका महत्त्व हमेशा बरकरार रहा है। वहीं भारत को लेकर अमेरिका की विदेश नीति संशय और आदशर्वाद का विचित्र मिशण्रहै। वह भारत का सहयोग तो चाहता है, लेकिन उसे चीन के प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभार देने को भी तत्पर नजर आता है।
अमेरिका भारत के साथ हिंद प्रशांत में सैन्य साझेदारी तो कर रहा है, लेकिन उसकी अपेक्षा यह भी है कि भारत रूस से संबंधों को सीमित करके खत्म कर दे। बाइडेन प्रशासन भारत से अपने हितों के अनुसार व्यवहार नहीं कर पाया तो उसने वापस कदम पाकिस्तान की ओर बढ़ा दिए। गौरतलब है कि दो दशक पहले अमेरिका में हुए आतंकी हमलों में पाकिस्तानी आतंकियों का हाथ उजागर होने के बाद अमेरिकी प्रशासन ने पाकिस्तान को नियंत्रित करने की कोशिशें तो बहुत की लेकिन जब वह फलीभूत न हो सकीं तो उसने पाकिस्तान के सामरिक उपयोग को तरजीह देने की नीति को आगे बढ़ा दिया और इसमें उसने भारतीय हितों की अनदेखी करने से भी परहेज नहीं किया।
अमेरिका अपने उद्देश्यों और राष्ट्रीय हितों के लिए स्थापित नैतिक मापदंडों से इतर व्यवहार करने से संकोच नहीं करता। जॉर्ज वॉशिंगटन के दौर से ही ऐसा चला आ रहा है। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अच्छी तरह से जानते थे कि पूंजीवाद के कोई नैतिक मापदंड नहीं होते और देशकाल व स्थितियों के अनुसार इसके भिन्न रूप सामने आ सकते हैं। अत: उन्होंने अमेरिका पर कभी भरोसा न करते हुए नियंत्रण और संतुलन को तरजीह दी थी। नेहरू मानते थे कि पूंजीवादी तंत्र लाभ के लिए चलाया जाता है, और अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने उस रास्ते पर ही कदम बढ़ाए हैं। बाइडेन सरकार ने लड़ाकू विमान एफ-16 के रखरखाव के लिए पाकिस्तान को 45 करोड़ डॉलर देने पर हामी भरते हुए कहा है कि इसके तहत पाकिस्तान सरकार के पास पहले से मौजूद एफ-16 विमानों की मरम्मत की जाएगी और उपकरण भी दिए जाएंगे।
भारत का कहना है कि अमेरिका के इस कदम से भारत की सुरक्षा चुनौतियां बढ़ेंगी वहीं अमेरिका ने ऐसी किसी संभावना से इंकार किया है। भारत की सुरक्षा चिंताएं अपनी जगह सही हैं, लेकिन वह इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता कि अमेरिका और पाकिस्तान के रक्षा संबंधों का इतिहास बेहद दिलचस्प रहा है, जहां मदद और प्रतिबंध साथ-साथ चलते रहे हैं। पिछले दो दशकों से अमेरिका और भारत के संबंधों में अभूतपूर्व वृद्धि जरूर हुई है, जो इस समय उच्च स्तर पर है।
पिछले कुछ सालों में भारत और अमेरिका का साझा हित बढ़े हैं, और सामरिक और आर्थिक साझेदारियां भी बढ़ी हैं। वहीं अमेरिकी विदेश नीति बेहद यथार्थवादी है और पाकिस्तान के भू-राजनीतिक और रणनीतिक महत्त्व को समझती है। अमेरिका और पाकिस्तान की सेना के संबंध राजनीतिक परिवर्तनों से अप्रभावित रहे हैं, और इसी का परिणाम है कि इमरान खान को रूस यूक्रेन युद्ध के समय रूस की यात्रा करना भारी पड़ गया था। अमेरिका के दो मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं-रूस और चीन। वहीं अमेरिका का आर्थिक रूप से मजबूत बने रहने के लिए उसका मध्य पूर्व पर सामरिक नियंत्रण अपरिहार्य है। इन स्थितियों में अमेरिका के अधिकांश हित पाकिस्तान से पूरे हो सकते हैं।
भारत लोकतांत्रिक देश है और भारत की जमीन का सामरिक उपयोग करने में अमेरिका को कामयाबी मिलना आसान नहीं दिखता। दूसरी ओर, पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता के चलते सेना के प्रभाव में है, और यह स्थिति अमेरिकी हितों के लिए मुफीद है। रूस यूक्रेन युद्ध के चलते पश्चिम की रूस पर अंकुश लगाने की कोशिशों में भारत के रु ख को पश्चिम के अनुकूल न समझा गया। यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने भी भारत को बेहतर कदम उठाने की सलाह दी थी। भारत की अपनी आर्थिक और सामरिक मजबूरियां रही हैं जिनसे निपटने के लिए रूस विसनीय साझीदार रहा है। यह साझेदारी रूस यूक्रेन संकट में बढ़ी और यहीं से भारत और अमेरिका के संबंधों के बीच समस्याएं भी बढ़ गई।
भारत दुनिया का दूसरा बड़ा तेल आयातक देश है। कोरोना काल में भारत की आर्थिक समस्याओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और इस संकट से उबरने के लिए रूस भारत का बदली परिस्थितियों में बड़ा मददगार बन गया। भारत, जो शायद ही कभी रूसी तेल खरीदता था, अब चीन के बाद मास्को का दूसरा सबसे बड़ा तेल आयातक बन गया है। इस कारण मॉस्को को पश्चिमी प्रतिबंधों के असर से बचने में मदद मिल रही है। साथ ही भारत ने यूक्रेन में रूसी हमलों की सार्वजनिक रूप से आलोचना नहीं की है।
अमेरिका के सामरिक,आर्थिक और राष्ट्रीय हित भारत की संतुलनकारी नीति से पूरे नहीं हो रहे हैं। वहीं पाकिस्तान को लेकर अमेरिका आस्त है। वह अमेरिकी मदद के बदले तालिबान खड़ा कर सकता है, और अल कायदा को समाप्त भी कर सकता है। अमेरिका के लिए भारत से ज्यादा महत्त्वपूर्ण अफगानिस्तान, मध्य एशिया, ईरान और रूस में उसके सामरिक और आर्थिक हित हैं, और इन पर नजर रखने के लिए पाकिस्तान सबसे बेहतर जगह है। जाहिर है, आने वाले समय में पाकिस्तान और अमेरिका की साझेदारी बढ़ेगी और भारत पर दबाव भी बढ़ेगा।
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