सूखा और बाढ़ का गणित

Last Updated 21 Sep 2022 01:24:50 PM IST

इस बार ‘भारतीय मौसम विज्ञान विभाग’ ने देश में सामान्य बारिश का अनुमान लगाया था लेकिन देश के कई हिस्से सूखे से जूझ रहे हैं।


सूखा और बाढ़ का गणित

कई जगहों पर कम बारिश से धान की खेती प्रभावित हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में सूखे की वजह से किसानों को समस्याओं का सामना कर पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश में जून से 10 सितम्बर तक बारिश का आंकड़ा 50 फीसदी से भी नीचे गिर चुका है। उधर, देश के अनेक हिस्से बाढ़ से जूझ रहे हैं, जहां बाढ़जनित हादसों में कई लोगों की जान जा चुकी है।
दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारे देश में कई स्थान ऐसे हैं कि जहां एक ही इलाके को बारी-बारी से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ता है।

विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए जिस तरह से जंगलों को नष्ट किया गया और पेड़ों की कटाई की गई, उसने स्थिति को और भयावह बना दिया। इस भयावह स्थिति के कारण मानसून तो प्रभावित हुआ ही, भू-क्षरण एवं नदियों द्वारा कटाव किए जाने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। बाढ़ और सूखा प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं, बल्कि एक तरह से प्रकृति की चेतावनियां भी हैं। सवाल है कि हम पढ़-लिख लेने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को क्या समझ पाते हैं।

विडम्बना ही है कि पहले से अधिक पढ़े-लिखे समाज में प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीवन जीने की समझदारी अभी भी विकसित नहीं हो पाई है। बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आती थीं लेकिन उनका अपना अलग शास्त्र और तंत्र था। इस दौर में मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद हम बाढ़ का पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं। दरअसल, प्रकृति के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार हम कर रहे हैं, उसी तरह का सौतेला व्यवहार प्रकृति भी हमारे साथ कर रही है। पिछले कुछ समय से भारत को जिस तरह से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ा है, वह आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन पर आधारित उस रिपोर्ट का ध्यान दिलाता है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण देश को बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं झेलने की चेतावनी दी गई थी।

आज ग्लोबल वार्मिग जैसा शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि इस मुद्दे पर हम बनी-बनाई लीक पर ही चलना चाहते हैं। यही कारण है कि कभी आईपीसीसी की रिपोर्ट को संदेह की नजर से देखने लगते हैं, तो कभी ग्लोबल वार्मिग को अनावश्यक हौव्वा मानने लगते हैं। विडम्बना ही है कि इस मुद्दे पर बार-बार सच से मुंह मोड़ना चाहते हैं। दरअसल, प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा, यह नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि हम बार-बार बाढ़ और सूखे का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाते जिससे लोगों के जान-माल की समय रहते पर्याप्त सुरक्षा हो सके।

शहरों और कस्बों में होने वाले जल भराव के लिए काफी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ वर्षो में कस्बों और शहरों में जो विकास और विस्तार हुआ है, उसमें पानी की समुचित निकासी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। गंदे नालों की पर्याप्त सफाई न हाने से उनकी पानी बहाकर ले जाने की क्षमता लगातार कम हो रही है। यही कारण है कि देश के अधिकतर कस्बों और शहरों में थोड़ी बारिश होने पर ही सड़कों पानी भर जाता है।

गौरतलब है कि 1950 में हमारे यहां लगभग ढाई करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी थी जहां पर बाढ़ आती थी लेकिन अब लगभग सात करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है, जिस पर बाढ़ आती है। इसकी निकासी का कोई समुचित तरीका नहीं है। हमारे देश में केवल चार महीनों के भीतर ही लगभग अस्सी फीसद पानी गिरता है। उसका वितरण इतना असमान है कि कुछ इलाके बाढ़ और बाकी इलाके सूखा झेलने को अभिशप्त हैं। इस तरह की भौगोलिक असमानताएं हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं।

पानी का सवाल हमारे देश की जैविक आवश्यकता से भी जुड़ा है। दरअसल, पानी के समान वितरण की व्यवस्था किए बगैर हम विकास के नये आयाम के बारे में नहीं सोच सकते। हमें सोचना होगा कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग कैसे किया जाए। बाढ़ के संबंध में विशेषज्ञ चेतावनी देते रहते हैं कि भविष्य में बाढ़ की प्रवृत्ति और प्रकृति लगातार बदलती रहेगी। इसलिए हमें एक तरफ अपने आपदा प्रबन्ध तंत्र को जागरूक और सक्रिय बनाना होगा तो दूसरी तरफ अपने पारंपरिक जल स्रेतों पर भी गंभीरता से ध्यान देना होगा। गौरतलब है कि देश में बाढ़ से होने वाले नुकसान का लगभग साठ फीसद उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और आंध्र प्रदेश में आई बाढ़ के माध्यम से होता है।

बाढ़ पर राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश में बाढ़ के कारण हर साल करोड़ों रु पये का नुकसान होता है, जो नुकसान लगातार बढ़ता जा रहा है। विश्व में बाढ़ से होने वाली मौतों में पांचवा हिस्सा भारत का है। बाढ़ हमारे देश में ही कहर नहीं ढा रही, बल्कि चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं।

सूखे के कारण दुनिया के बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भी नुकसान झेलना पड़ रहा है। बिजली उत्पादन, कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और पर्यटन उद्योगों पर बुरा असर पड़ रहा है। हालांकि हमारे देश में सूखे और बाढ़ से पीड़ित लोगों के लिए अनेक घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन मात्र घोषणाओं से पीड़ितों का दर्द कम नहीं होता। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि घोषणाओं का लाभ पीड़ितों तक भी पहुंचे।

रोहित कौशिक


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