मीडिया : पदयात्रा और पोजिशनिंग
एक जमाना था जब महात्मा गांधी पदयात्रा पर निकलते थे तो बहुत से लोग साथ-साथ चलने लगते थे और एक गांधी ये हैं कि इनकी पदयात्रा में सिर्फ नेता-कार्यकर्ता नजर आते हैं, आम जनता नहीं।
मीडिया : पदयात्रा और पोजिशनिंग |
याद करें, कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा पहले दिन बड़ी खबर बनी। सब लाइव आता रहा। उसके बाद सिर्फ दो-तीन मिनट की खबर मात्र बनकर रह गई!
हर पदयात्रा इन दिनों एक ‘मीडिया शो’ ही हो सकती है। यात्रा के पहले दिन के कुछ सीन देखें। ये सीन लगभग उसी तरह से बने जिस तरह से दिल्ली के रामलीला मैदान में बने थे : नेता बैठे हैं। उनके बीच राहुल बैठे हैं। सबकी नजर राहुल पर है, राहुल की नजर कहीं और है। कभी-कभी अपने बाजू वाले साथी से बतियाते दिखते हैं। कभी बेचैन नजरों से दूर देखते हैं यानी अपने महत्त्व के प्रति सजग दिखते हैं। बाकी नेता उनकी नजर पकड़ने के चक्कर में दिखते हैं। उनके जितना निकट आ सकें, इस कोशिश में दिखते हैं। कुछ उनके एकदम पास या एकदम पीछे रहने की जुगत में दिखते हैं। ये चिर परिचित मुसाहिबी के सीन हैं। सबकी नजर राहुल पर रहती है। लगता है कि राहुल की छवि का उद्धार किया जा रहा है। इसीलिए यह यात्रा अंतर्कलह से जूझती कांगेस में राहुल की ‘पोजिशनिंग’ करती दिखती है। यही इसका उददेश्य भी है। इस पदयात्रा के कुछ और मीडिया सीनों को याद करें: राहुल की अगुआई में कुछ कांग्रेस नेता-कार्यकर्ता चलते दिखते हैं, आजू-बाजू हाथ जोड़ते जाते हैं। आपस में बतियाते जाते हैं। फिर राहुल प्रेस कॉन्फ्रेंस कर देते हैं, और इस तरह खबर बनाते हैं। साफ है: राहुल की छवि को एक ‘लीडर और फाइटर’ की छवि में बदला जा रहा है, जो जनता के हित में कष्ट सहने निकल पड़ा है।
अब तक राहुल ‘बेमन’ से काम करने करने वाले ‘अनिच्छुक’ किस्म के नायक रहे। वही आज पदयात्रा पर हैं। यह एक प्रकार की शिफ्ट है। यात्रा एक प्रकार का ‘त्याग’ है। आरामतलबी का ‘त्याग’। नेहरू ने कहा था न कि ‘आराम है हराम’। इन हजारेक यात्रियों को दिन में छह-सात घंटे पैदल चलना है। होटल में सोने की जगह ट्रक जैसे ‘कंटेनरों’ में सोना है, जो यात्रा के साथ-साथ चल रहे हैं। ऐसे ऐलानों और सीनों का संदेश यही निकलता है कि इन दिनों कांग्रेसी नेताओं का पैदल चलना कितने बड़े त्याग का काम है। सच भी है। जो लोग कभी पैदल न चले हों वे चल रहे हैं, तो लगना चाहिए कि कितना कष्ट सह रहे हैं? लेकिन जमाना वो है जो ऐसे ‘त्याग’ को पाखंड मानता है और पाखंड यात्रा के तीसरे दिन खुल भी जाता है।
मीडिया में राहुल की महंगी ‘टी शर्ट’ बड़ी खबर बनाने लगती है। भाजपा फौरन तंज मारती नजर आती है कि एक ओर देश को जोड़ने की बात दूसरी और इतनी महंगी टीशर्ट..एक ओर गरीबी की बात दूसरी ओर इतनी महंगी टी शर्ट। देखते-देखते मेहनत से बनाई जाती राहुल की ‘त्यागी छवि’ ध्वस्त होने लगती है। वह राहुल के उस ‘रेडिकलिज्म’ को बेकार कर देती है, जिसके तहत वे अंबानी आडानी की अमीरी का हर पल विरोध करते नजर आते हैं। टी शर्ट पर आपत्ति के जवाब में टीम राहुल मोदी के ‘ग्यारह लाख के कोट’ में फंस जाती है। भाजपा प्रवक्ता तुरंत जवाब देता है कि उसे तो तीन करोड़ में नीलाम करके उसकी राशि सरकार के सुपुर्द कर दी गई थी आपने क्या किया?
एक ओर गरीबी की चिंता दूसरी ओर महंगी टी शर्ट! टी शर्ट ने राहुल की छवि की ‘उठान’ को पल में गिरा दिया। यात्रा की जगह ‘टी शर्ट’ ने ले ली। ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का अर्थ ‘जनता के हित में कष्ट सहना’ होता तो राहुल इतनी महंगी ‘टी शर्ट’ न पहनते। याद करें महात्मा गांधी बड़े वकील थे। उनको किसी चीज की कमी न थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी रेल यात्रा के दौरान भारत की गरीबी देखी, सारे कपड़े त्याग दिए। आजीवन एक धोती में रहे। उन्हीं से सीख लेते। जनता के लिए जनता जैसा हो जाना होता है। यही त्याग था जो गांधी को बाकियों से अलग करता है। गलती मानना, प्रायश्चित में उपवास रखना और कष्ट सहना गांधी को गांधी बनाता है न कि सिर्फ पदयात्रा। राहुल टी शर्ट न पहनते तो क्या घट जाता? लेकिन पहन ली और भक्तों ने पहनने दी और राहुल की सारी ‘पोजिशनिंग’ बेकार कर दी। राहुल भूल गए कि जिस मीडिया के जरिए वे यात्रा को यात्रा बनाना चाहते हैं, वही मीडिया उनको चौबीस बाई सात कवर करता है, और इस प्रक्रिया में आपके ऐसे कमजोर बिंदु भी पकड़ में आ जाते हैं। जनता अब भी ‘कथनी और करनी’ को ‘एक’ मानने वाले की इज्जत करती है। आप की कथनी और करनी में जरा भेद हुआ तो वह उसे नहीं भूलती।
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