एससीओ बैठक पर दुनिया की नजर

Last Updated 11 Sep 2022 01:43:36 PM IST

दुनिया की नजर उज्बेकिस्तान के समरकंद में आयोजित होने वाली शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक पर लगी है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी भाग लेना है।


एससीओ बैठक पर दुनिया की नजर

15 और 16 सितम्बर को आयोजित होने वाली एससीओ बैठक यूक्रेन युद्ध, ताइवान और इंडो-पैसिफिक घटनाक्रम की छाया में हो रही है। पिछले कुछ समय से यह कयास लगाया जा रहा था कि समरकंद में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच द्विपक्षीय वार्ता हो सकती  है। पूर्वी लद्दाख के टकराव बिंदुओं के संबंध में भारत और चीन के बीच हाल में बनी सहमति को संभावित वार्ता के लिए अनुकूल माहौल बनाने का प्रयास माना जा रहा है। दोनों देशों के सैन्य कमांडरों की 16वीं बैठक 17 जुलाई को हुई थी। बैठक बाद जारी विज्ञप्ति में इस बात का कोई ब्योरा नहीं था कि टकराव वाले किसी क्षेत्र से सेनाओं की वापसी का फैसला हुआ है। इस सप्ताह गुरुवार को अचानक से दोनों देशों की ओर से जारी एक संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि टकराव के प्रमुख क्षेत्र पेट्रोलिंग प्वाइंट-15 से दोनों देश अपनी अग्रिम सैनिक टुकड़ियां पीछे हटाएंगे। दोनों देश इस क्षेत्र में बनाए गए अस्थाई ढांचे को भी गिराएंगे। वक्तव्य के अगले दिन शुक्रवार को भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया कि सैनिकों को पीछे हटाने का काम 12 सितम्बर तक पूरा हो जाएगा। पूरे घटनाक्रम से जाहिर है कि एससीओ बैठक के ठीक पहले दोनों देश सीमा विवाद को लेकर जारी तनाव और गतिरोध को दूर करने के लिए कोशिश कर रहे हैं।

वर्ष 2017 में डोकलाम में सैनिक तनातनी समाप्त करने के लिए भी ऐसा फैसला लिया गया था, जिसके बाद ब्रिक्स शिखर वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच वार्ता संभव हो पाई थी। डोकलाम की तुलना में पूर्वी लद्दाख में तनाव का दायरा बहुत व्यापक और जटिल है। पीपी-15 के अलावा भी अनेक तनाव बिंदु हैं जहां दोनों देशों की सेनाएं तैनात हैं। एससीओ की बैठक में दोनों नेताओं के सामने यह अवसर होगा कि वे बेबाकी से अपना पक्ष रखें और कोई सहमति बनाएं। भारत में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच संभावित बैठक को लेकर राजनयिकों और विशेषज्ञों के बीच अलग-अलग राय है। एक वर्ग का मानना है कि पूर्वी लद्दाख में चीन का अतिक्रमण जारी है तथा सैनिकों को पीछे हटाने का फैसला चीन के पक्ष में जाता है। दूसरे वर्ग का मानना है कि यथार्थवादी विदेश नीति का तकाजा है कि एशिया की दो महाशक्तियां आपस में न उलझें। भारत की स्वतंत्र विदेश नीति और स्वायत्तता के लिए भी यह जरूरी है कि भारत किसी अन्य देश की रणनीति का मोहरा न बने। इस परिप्रेक्ष्य में रूस की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यूक्रेन युद्ध के पहले रूस ने चीन के साथ मजबूत गठबंधन कायम किया है। अमेरिका और पश्चिमी देशों की ओर से रूस के विरु द्ध जैसी सैनिक और आर्थिक लामबंदी की गई है उसके नतीजे में यह गठजोड़ और मजबूत बन रहा है।

भारत के लिए संतोष की बात यह है कि रूस अपनी विदेश नीति में भारत के साथ अपने संबंधों को प्रमुख स्थान देता है। रूस इस स्थिति में है कि वह चीन को इस बात के लिए राजी या बाध्य करे कि वह भारत के विरुद्ध आक्रामक रवैया न अपनाए। रूस के साथ अपने निकट संबंधों के कारण ही भारत ने यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस की कभी निंदा नहीं की है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पिछले 6 महीनों के दौरान भारतीय प्रतिनिधि ने एक बार भी उसकी आलोचना नहीं की। अमेरिका और पश्चिमी देशों में भारत के इस रवैये को लेकर नाराजगी है, लेकिन वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की चुनौती के मद्देनजर भारत के विरुद्ध नहीं बोल रहे हैं, लेकिन हाल में अमेरिका की ओर से ऐसे संकेत मिले हैं कि वह भारत पर पाकिस्तान के जरिए दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान को एफ-16 युद्धक विमानों के उपकरणों की बिक्री को मंजूरी दिया जाना इसी ओर इशारा कर रहा है। पाकिस्तान में इमरान के सत्ता से हटने तथा सेना का दबदबा फिर कायम होना भी अमेरिका के लिए अनुकूल माना जा रहा है। यह देखने वाली बात होगी कि अमेरिका अपना पाकिस्तान कार्ड किस रूप में चलता है। भारत के लिए यह जरूरी है कि वह चीन के साथ अपने सीमा विवाद को सीमित रखे तथा रूस के साथ अपने परंपरागत मैत्रीपूर्ण संबंधों की पुनर्पुष्टि करे।

डॉ. दिलीप चौबे


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