पेपर लीक प्रकरण : देवभूमि पर भी माफिया का साया
उत्तराखण्ड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के बहुचर्चित पेपर लीक घोटाले के खुलासे के बाद राज्य में जिस पत्थर को पलटो, उसके नीचे नया भर्ती घोटाला नजर आ रहा है।
पेपर लीक प्रकरण : देवभूमि पर भी माफिया का साया |
यहां तक कि प्रदेश के सुशासन के लिए विधान बनाने वाली विधानसभा भी भर्ती घोटालों से अछूती नहीं रह गई। यहां नियम-कायदों को ताक पर रख कर अपने-अपनों को रेवड़ियां बांटी गई।
अवसरों की इस लूट का लाभ बिहार के रिश्तेदरों ने तक उठाया। अब आप स्वयं ही कल्पना कर सकते हैं कि जो लोग भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की सीढ़ियां चढ़ कर प्रदेश की नौकरशाही में पहुंचे होंगे; वे कितनी ईमानदारी से काम कर रहे होंगे। जो कर्मचारी तृतीय श्रेणी के पद को भी 15 लाख में खरीदेगा, उससे ईमानदारी और निष्ठा की अपेक्षा कैसे की जाएगी? उत्तराखण्ड में बेरोजगारी निरंतर बढ़ रही है और रोजगार के जो थोड़े-बहुत अवसर पैदा हो भी रहे हैं वे आम लोगों तक पहुंचने से पहले ही गायब हो रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि भारत क्षेत्र के अंतर्गत किसी भी नागरिक के बीच कोई भी सरकारी नौकरी अर्थात लोक सेवाओं में किसी प्रकार का ऐसा भेदभाव नहीं किया जाएगा, जिसका आधार धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास इनमें से किसी भी कोई एक कारण में हो।
हमारे संविधान का यह अनुच्छेद समानता की गारंटी तो देता है, लेकिन उत्तराखण्ड में इस गांरटी की भी धज्जियां उड़ रही हैं। न केवल आम आदमी के नौनिहालों के रोजगार के अवसर उनसे छीने जा रहे हैं अपितु संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार का भी हनन हो रहा है। खेद का विषय तो यह है कि जिन लोगों को आम लोगों की पैरवी करनी थी और उनके हकों की रक्षा करनी थी उन पर ही अपने-अपनों को रेवड़ियां बांटने के खुलासे हो रहे हैं। राज्य के मंत्रियों द्वारा अपने चहेतों को सीधे नौकरियां देने के आदेश पब्लिक डोमेन में दिखाई दे रहे हैं। बिहार के मूल निवासी एक मंत्री ने बिहार में रहने वाले अपने दो चेचेरे भाइयों, एक भांजे तथा एक रिश्ते के दामाद को उत्तराखण्ड में नौकरियां दिला दीं। उसी मंत्री द्वारा उत्तराखण्ड में रह रहे तीन भतीजों और एक चचेरे भाई को भी नौकरियां दीं।
भले ही विधानसभा के एक अध्यक्ष ने अपने कार्यकाल में 129 लोगों की बिना विज्ञप्ति के सीधी भर्ती को जायज ठहरा दिया, मगर एक अन्य ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने अपने पुत्र और पुत्रवधू को अवश्य नौकरियां दी हैं, जिसके लिए उन्होंने प्रदेश की जनता से क्षमा भी मांग ली। तर्क दिया जा रहा है कि विधानसभा अध्यक्ष को प्रदेश की विधायिका का प्रमुख होने के नाते विधानसभा के मामलों में व्यापक अधिकार है। इसलिए अब तक गठित पांच में से चार विधानसभा और एक अंतरिम विधानसभा के कार्यकाल में व्यापक अधिकारों का व्यापक दुरु पयोग हुआ है।
अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। प्राधिकारी जितना बड़ा होता है उसकी नागरिकों के प्रति उतनी ही अधिक जिम्मेदारी होती है। हालात को देख कर प्रतीत होता है कि घोटाला शब्द उत्तराखण्ड राज्य की जन्म कुंडली में ही लिखा हुआ है। राज्य बनते ही राजधानी निर्माण का घोटाला सुर्खियों में रहा। जब पहली निर्वाचित सरकार बनी तो पटवारी भर्ती घोटाले ने पौड़ी के जिलाधिकारी की नौकरी ही खा ली थी। उनकी नौकरी कोर्ट से बच पाई।
उसके बाद बहुचर्चित दरोगा भर्ती घोटाला हुआ, जिसमें तत्कालीन पुलिस महानिदेशक और अतिरिक्त महानिदेशक पर मुकदमा चला। भर्तियों के अलावा हुए घोटालों की संख्या सैकड़ों में राजनीतिक दलों ने गिनाई। अब विधानसभा की बैकडोर भर्तियों में भी दलगत राजनीति से उठकर एक-दूसरे का बचाव किया जा रहा है, जबकि विकास के मामलों में दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सहयोग होना चाहिए। सन 1993 में तत्कालीन गृह सचिव एनएन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में राजनेता, नौकरशाह और माफिया तंत्र के गठजोड़ का खुलासा हुआ था। उत्तराखण्ड में यह गठजोड़ राज्य गठन के समय से सक्रिय है, जिसका सबसे पहले खुलासा पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने विधानसभा में किया था।
अधीनस्थ चयन सेवा आयोग का पेपर लीक प्रकरण भी उसी गठजोड़ का नतीजा है। माफिया के फोटो राजनेताओं के साथ छपते रहे हैं। कुछ महीने पहले ही हरिद्वार और नोएडा में राज्य के नेताओं और नौकरशाहों के रिश्तेदारों के माफिया के साथ मिलकर किए जमीन घाटोले सार्वजनिक हुए थे। घोटालों के इस माहौल में राज्य को लोकायुक्त की सख्त जरूरत है, लेकिन उत्तराखण्ड का लोकायुक्त विधानसभा में पिछले 4 सालों से लंबित पड़ा है। लोकायुक्त बिल पास कराने के बजाय समान नागरिक संहिता पर काम चल रहा है। ऐसे महौल में हताश जनता का राजनीतिक तंत्र से विश्वास उठना स्वाभाविक ही है। इसलिए सरकार को उस खोये भरोसे को पुन: हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।
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