चिंतित कराते आंकड़े : दिहाड़ी मजदूर कर रहे खुदकुशी
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) ने अपनी वार्षिक रपट सार्वजनिक कर दी है। अपराध के आंकड़े चिंतित करने वाले हैं।
चिंतित कराते आंकड़े : दिहाड़ी मजदूर कर रहे खुदकुशी |
दरअसल, भारत जैसे देश में जहां लोक कल्याणकारी सरकार की अवधारणा है, वहां एक साल में 42 हजार 4 दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या निश्चित ही चिंता का सबब है। सनद रहे कि यह आंकड़ा वर्ष 2021 का है, जब पूरा देश कोरोना के खौफ में जी रहा था।
यह देश वह मंजर कभी नहीं भूलेगा जब प्रवासी मजदूर सड़क मार्ग से पैदल ही अपने गांवों में वापस लौट रहे थे। इसका प्रमाण तो इसी मंजर ने दे दिया था कि कोरोना के कारण पूरे देश में तालाबंदी का शिकार यदि कोई वर्ग होगा तो यही मजदूर वर्ग होगा। इसकी वजहें भी हैं। इन वजहों पर चर्चा आगे करते हैं। पहले तो एनसीआरबी द्वारा जारी किए गए आंकड़ों की भयावहता के दूसरे आयामों को देखें ताकि समग्रता में बात की जा सके। एनसीआरबी की रपट कहती है कि वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 2021 में खुदकुशी करने की घटनाओं में 7.17 फीसद की वृद्धि हुई है। यह संख्या एक लाख 53 हजार 52 है। इसमें 11.52 फीसद पेशेवर रहे। ये पेशेवर कौन थे, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। ये पेशेवर भी मजदूर वर्ग के ही हैं, जिन्हें संगठित मजदूर की हैसियत हासिल है, लेकिन कोरोना महामारी के दौरान अफरातफरी के माहौल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी व्यापक स्तर पर छंटनी की। इसके कारण लोगों में डिप्रेशन बढ़ा, कई लोग गंभीर बीमारियों से ग्रसित हुए। कई तो असमय काल-कवलित हो गए। फिलहाल एनसीआरबी की रपट इसके प्रमाण देती है।
रही बात बेरोजगारों की तो वर्ष 2020 में 15 हजार 652 बेरोजगार युवाओं ने खुदकुशी की। हालांकि एनसीआरबी का दावा है कि बेरोजगारों की संख्या में कमी आई है, और वर्ष 2021 में खुदकुशी करने वाले बेरोजगारों की संख्या 13 हजार 714 रही। इस आंकड़े में कमी की एक बड़ी वजह यह भी रही कि इस बार एनसीआरबी ने 9 श्रेणियां निर्धारित की थीं। इनमें विद्यार्थी, पेशेवर/वेतनभोगी, दिहाड़ी मजदूर, सेवानिवृत्त, बेरोजगार, स्वरोजगार, गृहिणी, किसान और अन्य शामिल रहे। खैर, आंकड़ों के परे स्थिति की भयावहता को समझने का प्रयास करते हैं। चूंकि ये आंकड़े कोरोना काल के हैं, इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि कोरोना महामारी ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया है, और इसका असर उस वर्ग पर सबसे अधिक पड़ा है, जो वंचित रहा है। इनमें दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति दूसरी है। यह भी उल्लेखनीय है कि बड़ी संख्या में लोग कोरोना महामारी के कारण भी मारे गए। इनमें भी उनकी संख्या अधिक रही जो प्रवासी मजदूर थे। चूंकि केंद्र सरकार ने पहले ही कह रखा है कि उसके पास मृतकों के बारे में सटीक आंकड़े नहीं हैं, तो यह तो साफ है कि बीमारी के कारण और खुदकुशी करने वाले मजदूरों की संख्या एनसीआरबी के आंकड़ों से अधिक ही होगी। असल में मजदूरों का वर्गीकरण दो तरह से करने का रिवाज है। एक संगठित क्षेत्र के मजदूर और दूसरा असंगठित क्षेत्र के मजदूर। संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए देश में श्रम कानून तय हैं, लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूर अनाथ मजदूर माने जाते हैं। इनके लिए श्रम कानून लगभग बेमानी होते हैं।
दिहाड़ी मजदूरों की सामाजिक पृष्ठभूमि पर गौर किया जाना भी आवश्यक है। इनमें अधिकांश दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों के होते हैं। ये गांवों से शहरों में कमाने के लिए जाते हैं। इसकी वजह यह कि गांवों में अब पहले जैसे रोजगार के साधन नहीं रहे। इन वगरे में भूमिहीनता बड़ा सवाल रही है। ऐसे में इनके पास जीवन-यापन के लिए कोई और विकल्प नहीं होता। हालांकि देश में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भी है, जिसके तहत ग्रामीण मजदूरों को गांवों में ही कम-से-कम 100 दिनों का रोजगार देने का प्रावधान है। यह भी व्यवस्था है कि कि यदि सरकार रोजगार नहीं दे पाती है, तो मजदूरों को मुआवजा पाने का अधिकार है, लेकिन यह केवल कागजी बात है।
हकीकत यह है कि आज पूरे देश में मनरेगा योजना को विफल किया जा चुका है। आश्चर्यजनक तथ्य है कि वर्ष 2020-21 और वर्ष 2021-22 में मनरेगा के तहत आवंटन में करीब 35 फीसद तक कमी की गई जबकि मनरेगा ने कोरोना महामारी के वक्त दिहाड़ी मजदूरों की आर्थिकी को मजबूती दी थी। खुदकुशी के आंकड़े सरकार पर सवाल उठाते हैं। सवाल इसलिए भी कि जिस तरह के दावे कोरोना काल के दौरान केंद्र के स्तर पर किए गए या फिर राज्यों की सरकारों द्वारा किए गए, वे पूरे नहीं हो सके। मगर इससे भी बड़ा सवाल समाज की संवेदनशीलता का है। दरअसल, हुआ यह कि कोरोना काल के दौरान लोगों ने अपना निजी काम भी ठप कर दिया। बड़ी संख्या में लोगों ने मजदूरों को उनकी मजदूरी का भुगतान नहीं किया। इस तरह की असंवेदनशीलता व्यापक स्तर पर पूरे देश में देखने को मिली। बहरहाल, खुदकुशी के मसले पर आंकड़ों से इतर जाकर भी विचार किए जाने की आवश्यकता है कि श्रमिकों का वह वर्ग जो हर तरह से उपेक्षित है, उसके लिए ठोस उपाय किए जाएं। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि देश में खेती पर निर्भरता तेजी से घटती जा रही है (मानसून की अनिश्चितता ने आशंका को गहरा किया है) और लोग विनिर्माण व सेवा क्षेत्र की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं।
सरकार को श्रमिकों के संबंध में अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि दिहाड़ी मजदूरों को जान देने की नौबत न आए। यह तभी संभव है जब केंद्र सरकार दिहाड़ी मजदूरों को मजदूर मानेगी और उनके लिए भी श्रमिक कानूनों को प्रभावी बनाएगी। उन्हें भी उसी तरह का संरक्षण मिले, जिस तरह का संरक्षण संगठित क्षेत्र के मजदूरों को प्राप्त है। रही बात प्रक्रिया तय करने की तो देश में संसद है। संसद को तत्परता से इस मसले पर विचार करना चाहिए। आखिर, वह भी तो सत्ता का अभिन्न हिस्सा है।
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