सियासी दुष्चक्र में वंचित समुदाय

Last Updated 27 Aug 2022 11:57:02 AM IST

भारत में जनतंत्र कामयाब नहीं हो सकता क्योंकि यहां की सामाजिक व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र के प्रारूप से मेल नहीं खाती।’


सियासी दुष्चक्र में वंचित समुदाय

स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार रहे डॉ. भीमराव आंबेडकर का यह कथन वंचित वर्ग के हितों के संरक्षण को लेकर था। 1951 में वे जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार में कानून मंत्री भी बने, लेकिन उन्होंने यह कहकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया था की नेहरू ने वंचित समुदायों के लिए पर्याप्त कोशिशें नहीं की।
भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। एक बेहतर समतावादी व्यवस्था की स्थापना के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण को मज़बूत करने के साथ ही लैंगिक भेदभाव को समाप्त करना बहुत आवश्यक है।

भारत में जातीय भेदभाव  की चुनौती इसमें शामिल है, लेकिन हकीकत यह है कि भारत मानव विकास के तमाम मानकों पर दुनिया के सबसे फिसड्डी देशों में एक है। भारतीय लोकतंत्र से ऐसी अपेक्षा संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी। डॉ. अंबेडकर असमानता के प्रभावों को लेकर इतने आशंकित थे कि उन्होंने संविधान सभा को चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर हमने इस गैरबराबरी को खत्म नहीं किया तो इससे पीड़ित लोग उस ढांचे को ध्वस्त कर देंगे, जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।

यह बेहद दिलचस्प है कि भारत में गैर बराबरी बनाएं रखने के लिए वंचित वर्ग से ज्यादा तत्पर राजनीतिक दलों का प्रभावी सामंती वर्ग रहा है और वह किसी भी तरीके से जातीय व्यवस्था को बनाएं रखने के लिए प्रतिबद्ध नजर आता है। शिक्षा भी जातीय व्यवस्था के संकुचित दायरे से पूरी तरीके से बाहर नहीं आ सकी है और इसके प्रभाव से स्कूल, यूनिर्वसटिीज, बड़े संस्थान, कॉर्पोरेट जगत, मीडिया, नौकरशाही और सामाजिक संगठन ग्रस्त रहे हैं।

राजनीतिक दलों के लिए गैर बराबरी खत्म करने को मुद्दा है ही नहीं। क्योंकि गैर बराबरी उन्हें अलग अलग अवसरों पर सत्ता तक पहुंचने का अवसर उपलब्ध कराती है। संविधान सभा में अंतिम बार सवालों का जवाब देने का जिम्मा उन्हें ही सौंपा गया था। डॉ. आंबेडकर की सबसे बड़ी चिंता यह है कि जातियों में बंटा भारतीय समाज एक राष्ट्र की शक्ल कैसे लेगा और आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के रहते वह राष्ट्र के रूप में अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे कर पाएगा? आजादी के इतने सालों का अनुभव यह बताता है कि असमानता के रहते न तो वास्तविक स्वतंत्रता कायम हो सकती है और न ही समता, स्वतंत्रता, समानता के बिना किसी सामाजिक भाईचारे की कल्पना ही की जा सकती है।

यानी जातिवाद के खात्मे के बिना लोकतांत्रिक समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते। तो क्या भारत में लोकतंत्र विफल हो गया है? नहीं, लेकिन संसदीय लोकतंत्र में आरक्षित वर्ग से चुने गए प्रतिनिधियों के निक्कमेपन ने करोड़ों दलित आदिवासियों के हितों को निराश अवश्य किया है। अनुच्छेद 334 के संविधानिक प्रावधान के मुताबिक हर दस साल पर, संसद एक संविधान संशोधन विधेयक पारित करती है, जिसके तहत लोक सभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ा दिया जाता है और फिर राष्ट्रपति इस विधेयक को अनुमोदित करते हैं।

इस समय लोक सभा में 543 सदस्यों में एससी के लिए 84 और एसटी के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं, जबकि विधानसभाओं में 4120 सीटों में 1168 सीटें एससी-एसटी के लिए हैं। लोक सभा और विधानसभाओं में आजादी के समय से ही अनुसूचित जाति और जनजाति का उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व रहा है। सवाल यह उठता है कि इतने सारे दलित और आदिवासी सांसद और विधायक अपने समुदाय के लिए करते क्या हैं? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड  ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक इन समुदायों के उत्पीड़न के मामलों से साल दर साल वृद्धि हुई है।  जाहिर है कि इन आंकड़ों के पीछे एक और आंकड़ा उन मामलों का होगा, जो कभी दर्ज ही नहीं होते हैं। क्या दलित उत्पीड़न की इन घटनाओं के खिलाफ दलित सांसदों या विधायकों ने कोई बड़ा, याद रहने वाला आंदोलन किया है?

जालौर की घटना को ही लीजिए। इसके विरोध में एक दलित विधायक ने इस्तीफा दिया, लेकिन यह भी बड़ी बात है क्योंकि आरक्षित वर्ग के विधायक अकेले तो आवाज उठा ही नहीं पाते और न ही कभी एकजुट होकर अपने समुदायों के हितों के लिए मुखर होकर बोलते हैं। संविधान की व्यवस्था के मुताबिक, अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें आरक्षित हैं, लेकिन वोटर सभी वगरे के होते हैं। किसी भी आरक्षित लोक सभा सीट 20 से 50 फीसद एससी या एसटी के लोग होते हैं और बाकी अन्य वगरे के मतदाता होते हैं।

अनुसूचित जाति या जनजाति के किसी नेता का सांसद चुना जाना इस बात से तय नहीं होगा कि  उसके वर्ग के कितने लोगों ने उसे वोट दिया है। ज्यादातर आरक्षित सीटों की यही कहानी है। इन सीटों पर चुना वह जाएगा जो आरक्षित समूह से बाहर के ज्यादातर वोट हासिल करेगा। राजनीतिक सीटों पर चुने जाने की विवशता और राजनीतिक दल के हित साधने के लिए आरक्षित वर्ग के प्रतिनिधि निष्क्रियता बनाएं रखते हैं और यही अनुसूचित जाति और जनजाति के करोड़ों लोगों के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है।

सामान्य मुद्दों पर कई-कई दिनों तक विधानसभा और संसद के कार्य को बाधित कर दिया जाता है, लेकिन आरक्षित वर्ग के हितों के लिए यदि एससी के 84 और एसटी के 47 सांसद संसद में हंगामा कर दें या एक साथ विरोध कर दें तो इसका व्यापक प्रभाव पड़ सकता है। बाबा साहेब का मॉडल वंचितों को समर्थ और सक्षम बनाकर उन्हें इस काबिल बनाने का है कि वे जातिवाद को चुनौती दे सकें। राजनीतिक परिदृश्य खासकर संसदीय लोकतंत्र में आरक्षित वर्ग के प्रतिनिधियों की निष्क्रियता के चलते जातिवाद और गैर बराबरी को खत्म करना मुश्किल दिखाई पड़ता है। डॉ. आंबेडकर को दलितों की दावेदारी का प्रतीक बताया जाता है, लेकिन आरक्षित वर्ग के विधायक और सांसद उस दावेदारी का प्रतिनिधित्व करते कभी नजर ही नहीं आते, जोकि तकलीफ की बात है।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने


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