भाषाई मर्यादा से बेपरवाही अनुचित
राजनीति में सहमति-असहमति और आरोप-प्रत्यारोप से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन असहमति या आरोप की अभिव्यक्ति करते में आवश्यक होता है कि भाषाई शुचिता के प्रति सचेत रहा जाए।
भाषाई मर्यादा से बेपरवाही अनुचित |
इस संदर्भ में भारतीय राजनीति की स्थिति चिंतित करने वाली है। कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने जिस तरह से देश की नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के प्रति अनुचित शब्दों का प्रयोग किया, वह दिखाता है कि हमारे राजनेताओं की भाषा का स्तर किस कदर पतित हो चुका है। अधीर रंजन भले राष्ट्रपति के प्रति अपनी भाषाई अभद्रता को जुबान की फिसलन कहकर बचने की कोशिश करें लेकिन समझना कठिन नहीं कि उनकी आपत्तिजनक भाषा के मूल में भाजपा उम्मीदवार के राष्ट्रपति बन जाने से उपजी बौखलाहट है।
यूं तो भाषाई शुचिता की कसौटी पर कोई भी दल पाक साफ कहलाने की स्थिति में नहीं है, लेकिन अमर्यादित भाषा की समस्या विपक्षी दलों और नेताओं के साथ कुछ अधिक ही नजर आती है। गौर करें तो गत आठ वर्षो में सबसे अधिक किसी के प्रति भाषाई अभद्रता दिखी है, तो वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। मोदी की लोकप्रियता के कारण भाजपा की लगातार चुनावी सफलताओं से बौखलाया विपक्ष अपनी खीझ जब-तब प्रधानमंत्री के प्रति अपशब्दों के माध्यम से व्यक्त करता रहता है।
देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का दम भरने वाली वाली कांग्रेस भाषाई शुचिता के शीलभंग का कुछ अधिक ही उत्साह सवार हो रहा है। अधीर रंजन से पहले भी कांग्रेस नेताओं के एक से एक शर्मनाक एवं आपत्तिजनक बयान सामने आते रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने राफेल प्रकरण में प्रधानमंत्री मोदी के लिए ‘चोर’ जैसे आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया था। वे प्रधानमंत्री के प्रति ‘तू-तड़ाक’ जैसी निम्नस्तरीय भाषा का इस्तेमाल तक कर चुके हैं। प्रबुद्ध राजनेता माने जाने वाले शशि थरूर प्रधानमंत्री की तुलना बिच्छू से कर चुके हैं। ये चंद उदाहरण हैं अन्यथा मोदी के प्रति भाषाई अभद्रताओं का इतिहास तो ‘मौत के सौदागर’ से लेकर ‘नीच’ तक लंबा है।
जाहिर है, राजनीतिक विरोध में अंधे हो चुके विपक्ष को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पदों की गरिमा तक का ख्याल नहीं रह गया है। विपक्ष को समझना चाहिए कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दल विशेष के नहीं होते, बल्कि देश के होते हैं, जिनका अपमान देश की जनता का अपमान है। विपक्ष की भाषाई अभद्रता के बचाव में तर्क दिया जाता है कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तो उनके प्रति तत्कालीन विपक्ष भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता था। बेशक, संप्रग-2 सरकार के दौरान जिस तरह सरकारी एजेंसियों द्वारा केंद्रीय स्तर पर एक के बाद एक घोटाले सामने लाए गए, उनके चलते मनमोहन सिंह विपक्ष के निशाने पर रहे। लेकिन तमाम घोटाले सामने आने के बावजूद भाजपा के किसी शीर्ष नेता ने कभी मनमोहन सिंह के लिए ‘चोर’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।
प्रधानमंत्री मोदी तो अक्सर अपने भाषणों में दलीय दायरे से ऊपर उठकर देश के विकास में मनमोहन सिंह समेत पिछले सभी प्रधानमंत्रियों के योगदानों का उल्लेख करते रहे हैं। हाल में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने एक संबोधन में कहा कि मैं नेहरू या किसी भारतीय प्रधानमंत्री की नीतियों पर सवाल उठा सकता हूं, नीयत पर नहीं। इस कथन से राजनाथ सिंह ने भारतीय राजनीति में निहित स्वस्थ आलोचना की परंपरा का संदेश दिया। इसे सभी दलों और नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए।
पहले भी राजनीति में पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलते थे, लेकिन भाषाई गरिमा का लोप नहीं होता था। नेता एक दूसरे पर तंज करते थे, मगर किसी की तौहीन नहीं की जाती थी। प्रसिद्ध घटना है कि एक बार पं जवाहर लाल नेहरू ने जनसंघ के लिए कहा था कि मैं जनसंघ को कुचल दूंगा। यह कठोर भाषा थी, लेकिन जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने खूबसूरती से इसका जवाब देते हुए कहा था कि मैं आपकी कुचलने वाली मानसिकता को कुचल दूंगा। कहने का अर्थ यह है कि पहले हमारे राजनेताओं में परस्पर सम्मान और सहिष्णुता की भावना होती थी, जो दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है।
अब अगर एक पक्ष ने कुछ आपत्तिजनक कहा, तो दूसरा पक्ष उससे भी अधिक आपत्तिजनक शब्दों के साथ जवाब देने उतर पड़ता है। जबकि वास्तव में अशिष्ट भाषा न केवल बात की गंभीरता को खत्म कर देती है, बल्कि बोलने वाले के वैचारिक दिवालियेपन को भी दिखाती है। बावजूद इसके हमारे विपक्षी नेताओं के अपशब्दों से लगाव का कारण समझ से परे है। महात्मा गांधी के लिए हिंसा का अर्थ किसी को शारीरिक चोट पहुंचाना ही नहीं था, बल्कि कठोर शब्दों के जरिए मन को कष्ट पहुंचाने को भी वे हिंसा मानते थे। इस कारण वे अक्सर सत्य किंतु मीठा बोलने पर जोर देते थे। गांधी के नाम पर दशकों तक सत्ता का सुख भोगने वाली कांग्रेस गांधी की इस एक अति-सामान्य और सहज कसौटी पर कहां ठहरती है, यह बताने की जरूरत नहीं।
कुल मिलाकर इस स्थिति को देखते हुए नेताओं की भाषाई शुचिता सुनिश्चित करने के लिए भी कानून या कुछ कानूनी दिशा-निर्देशों की सख्त जरूरत महसूस होती है, क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में स्वेच्छापूर्वक हमारे नेताओं से सभ्य भाषा की उम्मीद करना अब बेमानी हो चला है।
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