बाल यौन शोषण: कलंक से मुक्त होने का वक्त
बाल यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में हाल के दिनों में तेजी आई है। पिछले दिनों लोक सभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 2020 में पॉक्सो एक्ट के तहत 47 हजार से अधिक मामले दर्ज किए गए और ऐसे मामलों में सजा की दर 39.6 फीसद रही।
बाल यौन शोषण: कलंक से मुक्त होने का वक्त |
आज जब देश चहुंमुखी विकास की ओर उन्मुख है, तब बाल यौन शोषण के मामले राष्ट्र की छवि को मलिन कर रहे हैं। समानता, सबलता और अपराधमुक्त मार्ग की ओर अग्रसर देश के लिए ऐसे अपराध अप्रासंगिक हो जाने चाहिए थे। बच्चे सुरक्षित वातावरण में किशोरवय जीवन जिएं, निश्चित ही इसके पुख्ता इंतजाम पर बल दिया जाना चाहिए।
2020 में जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 18 वर्ष से कम उम्र के 7.9% लड़के एवं 19.7% लड़कियां यौन शोषण की शिकार हुई। वहीं भारत में 2017 से 2020 के बीच यौन उत्पीड़न के 24 लाख से अधिक मामलों में 80 प्रतिशत मामले 14 साल से कम उम्र की किशोरियों के थे।
यूनिसेफ द्वारा 2005 से 2013 के बीच किए गए अध्ययन के आंकड़े के मुताबिक भारत की 10 फीसद लड़कियों को जहां 10 से 14 वर्ष से कम उम्र में यौन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा वहीं 30 प्रतिशत ने 15 वर्ष के दौरान यौन दुर्व्यवहार झेला। पंजीकृत मामलों में उत्तर प्रदेश 6,898 पहले नंबर पर है। इसके बाद महाराष्ट्र (5,687) और मध्य प्रदेश (5,648) हैं। हालांकि न्याय विभाग 1,023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (एफटीएससी) स्थापित करने की योजना पर विचार कर रहा है, जिसमें 389 विशेष पॉक्सो अदालतें शामिल हैं, जो रेप और पोक्सो अधिनियम से संबंधित मामलों का तेजी से निपटारा करेंगी, लेकिन क्या इतने भर से काम चलेगा।
मानसिक तथा भावनात्मक स्तर पर किया जाने वाला यह शोषण बच्चे के अंतर्मन में गहरी पैठ बना रहा है, जो आगे चलकर उन्हें कुंठित और विकृत संतति के रूप में समाज का हिस्सा बनाएगा। ऐसे में परिवार, कानून और समाज की चाक-चौबंदी जरूरी है क्योंकि कुंठा और घोर निराशा में बच्चे आत्महंता बन रहे हैं। बालपन में इस कुंठा के बोझ तले जीवन गुजारने के चलते बड़े होने पर भी वे इस मानसिक गुलामी से उबर नहीं पाते और विक्षिप्त व्यक्तित्व का हिस्सा बन समाज में गैर-उत्पादक इकाई बन जाते हैं।
उपर्युक्त आंकड़े किसी भयावह स्थिति का संकेतक हैं। आखिर, हम किस कुंठित समाज में जी रहे हैं, जहां बच्चे अपनी सुरक्षा के लिए अब तक बाट जोह रहे हैं। इसके लिए प्राथमिक स्तर पर सुरक्षा एजेंसियां, बाल संस्थान, बच्चों को सुरक्षा मुहैया करवाने वाले गैर-सरकारी संगठन और कल्याणकारी प्रदाता की भूमिका में राज्य भी अपने दायित्वों का दायरा बढ़ाएं। स्कूलों में अनिवार्य मनोवैज्ञानिक कक्षाएं, परामर्शदात्री कार्यशालाएं, बच्चों से नियमित संपर्क के जरिए इस दिशा में अच्छी पहल की जा सकती है।
डॉक्टर, मीडिया व पुलिस भी इन घटनाओं के प्रति संवेदनशील हों तो निश्चित ही सकारात्मक परिणाम निकलेंगे। बच्चों की सुरक्षा राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बनें, इस पर तत्परता से प्रयास किए जाने चाहिए। बाल यौन शोषण की घटनाएं हताश, निराश घृणा का अहसास कराने वाली हैं। सशक्त राष्ट्र बनने की राह पर खड़े किसी देश को ऐसे घृणित अपराधों से तुरंत मुक्त होना चाहिए।
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