मीडिया : पत्रकार दानिश सिद्दीकी
न्यूज एजेंसी ‘रायटर’ ने बताया है कि पुल्ट्जिर से सम्मानित दानिश सिद्दीकी ‘एंबेडेड’ जर्नलिस्ट था।
पत्रकार दानिश सिद्दीकी |
अफगान सेना जहां-जहां तालिबानों का मुकाबला करने जाती वहां-वहां उसे जाना होता और ‘रायटर’ को अपनी रिपोर्टे भेजा करता। खबर के अनुसार ‘स्पिन बोल्डक’ नामक जिस इलाके वह मारा गया वहां एक अफगान सैनिक फंसा था जिसे निकालने के लिए अफगान सेना गई थी। दानिश भी एक ‘हमवी’ (बख्तरबंद गाड़ी) में था। जब गाड़ी सैनिक को निकालने लगी तभी तालिबान ने भारी गोलाबारी शुरू कर दी और एक गोला दानिश वाली गाड़ी पर लगा और अन्य सैनिकों के साथ वह भी मारा गया।
यह विवरण एक दानिश के एक साथी पत्रकार ने दिया है, जो इसी मुहिम में दूसरी ‘हमवी’ में था और जिसकी गाड़ी गोले का निशाना बनने से बाल-बाल बची थी। दानिश जामिया के मास कम्यूनिकेशन सेंटर का छात्र रहा। वह उन दृश्यों को अक्सर सामने लाता जिनमें आम आदमी की पीड़ा प्रकट होती हो जिनसे आम आदमी आसानी से जुड़ सके। ‘रायटर’ ने उसे इसीलिए रखा कि वह एशियाई क्षेत्र को आसानी से कवर कर सकता था। उसने सीएए विरोधी आंदोलन, दिल्ली के दंगे और किसान आंदोलन, कोविड में मरने वालों के जलते शवों को प्रभावशाली तरीके से कवर किया था। इससे उसे शोहरत मिली।
रिपोर्टे कहती हैं कि उसकी मौत ‘क्रॉस फायरिंग’ में हुई। एंबेडेड जर्नलिस्टों के साथ ऐसा अक्सर होता है कि वे सेना के साथ मोरचे पर होते हैं और क्रॉस फायरिंग की चपेट में आ जाते हैं। और यदि अफगानिस्तान जैसा युद्धजर्जर क्षेत्र हो जहां अमेरिका के हटने के बाद तालिबान अफगानी सेना से एक-एक इलाका छीनते जा रहे हों तो वहां न कोई ‘मानवाधिकार’ चलता है, न नागरिक कानून, सिर्फ गोली चलती है, वही तय करती है कि किसका क्या होना है। यह आम ‘कान्फ्लिक्ट जोन’ की पत्रकारिता या कहें कि उससे भी अधिक ‘मोरचे की पत्रकारिता’ की तरह होता है। ‘युद्ध क्षेत्र’ में हर पक्ष चाहता है कि हर पत्रकार उसकी कहानी को उसी की जुबानी बताए। कोई इधर उधर करता है तो ‘टारगेट’ बन जाता है। ‘एंबेडेड जर्नलिस्ट’ सेना के साथ सैनिक जैसा वेश रखकर युद्ध को कवर करता है। जिसके साथ वह ‘एंबेडेड’ होता है, उसी की नजर से कहानी बनाता है। इसलिए भी वह विपक्षी सेना का टारगेट होता है। और आज के मीडिया युग में हर सेना अपने कवरेज के प्रति ‘अतिरिक्त संवेदनशील’ होती है।
‘एंबेडेड पत्रकारों’ की चरचा पहली बार तब शुरू हुई जब अमेरिकी फौजों ने इराक पर हमला किया। इस युद्ध में अमेरिका ने 2,50,000 सैनिकों के साथ करीब 1,000 एंबेडेड पत्रकार भेजे थे जिनमें से पंद्रह युद्ध क्षेत्र में मारे गए। इनमें से पहले मारे जान वाले पत्रकार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के ‘माइकेल कैली’ थे। कुछ दिन बाद ‘बोस्टन ग्लोब’ की पत्रकार ‘ऐलिजाबेथ न्यूफर’ मारी गई। फिर दो ‘फ्रांसीसी’ पत्रकार ‘फेड नेरेक’ तथा ‘हुसैन सलाम’ मारे गए। ‘एंबेडेड पत्रकार’ हमेशा ‘रिस्क जोन’ में रहते हैं। उसी सेना के साथ तैनात होते हैं, जिसके ‘एंबेडेड’ होते हैं। ‘एंबेडेड’ यानी ‘हम बिस्तर’! ‘हम बिस्तर’ पत्रकार यानी ‘तटस्थ’ की जगह ‘एक की साइड में रहने वाला पत्रकार’।
हमने जो कहा वह अब तक के मीडिया कवरेज के हवाले से कहा है जबकि इसका एक ‘पाठ’ यह भी है कि उन्हें तालिबानों ने निशाना लगाकर मारा लेकिन तालिबान नाराज न हों, इसलिए कहानी ‘क्रॉस फायर’ की बनाई गई। सचाई क्या है, यह शायद ही कभी पता चले। हां, अफसोस इस बात का है कि एक बेहतरीन फोटो पत्रकार चला गया। असली मुद्दा ऐसे पत्रकारों की सुरक्षा का है। ‘सेफ्टी फॉर जर्नलिस्ट’ नामक वैश्विक संस्था का कहना है कि चुनौती ऐसे पत्रकारों की हिफाजत की है, जिसकी गारंटी कोई नहीं देता।
अब जरा ‘रायटर’ का पक्ष देखिए: उसे ऐसे युद्धों की असली कवरेज चाहिए। इसके लिए वह खास रिस्क लेने वाले पत्रकार नियुक्त करता है, और उनके कवरेज को बेचकर जम के कमाई करता है। लेकिन जब कोई पत्रकार मारा जाता है, तो कितना हर्जाना देता है, किसी को पता नहीं। उनका बीमा होता है कि नहीं? पता नहीं। जो मारे गए उनके घर वालों को कुछ हर्जाना मिला कि नहीं? किसी को मालूम नहीं।
दानिश का जाना निश्चय ही शोक का विषय है। नेताओं द्वारा श्रद्धांजलि देना भी उचित है, लेकिन शोक की राजनीति अक्षम्य है। लेकिन वो तो होगी और हो रही है। लेकिन असली मुद्दा ‘एंबेडेड पत्रकारों’ को ‘भाड़े के सैनिकों’ की तरह नियुक्ति करने की ‘नैतिकता’ का है, उनकी सुरक्षा और ‘रिस्क कवर’ का है, और उनके परिवारों की मदद का है।
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