वैश्विकी : बाइडेन-पुतिन की पिंग पांग डिप्लोमेसी

Last Updated 20 Jun 2021 12:14:29 AM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच जेनेवा में संपन्न शिखर वार्ता को चीन के नेतृत्व ने आशंका के साथ और भारत ने उत्सुकता के साथ देखा।


अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन

इस शिखर वार्ता को लेकर अमेरिका और रूस में ज्यादा उम्मीद नहीं थी, लेकिन इस बैठक का आयोजित होना ही बड़ी कूटनीतिक घटना थी। बैठक उस समय हुई जब अमेरिका और रूस के बीच कूटनीतिक तनाव है और दोनों देशों के राजदूत स्वदेश लौट आए हैं। विचार-विमर्श का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि दुनिया की दो बड़ी परमाणु शक्तियां परमाणु हथियारों को लेकर बातचीत करने पर फिर राजी हो गई हैं, साथ ही साइबर सुरक्षा के नये खतरों के बारे में भी दोनों ने बातचीत करने का फैसला किया है। शिखर वार्ता का आयोजन स्थल जेनेवा था। यह यूरोपीय देशों अमेरिका की ओर से संदेश था कि रूस के बढ़ते सैनिक प्रभाव को काबू करने में अमेरिका यूरोप का साथ देगा। यूक्रेन और जॉर्जिया के संबंध में रूस की राजनीतिक और सैनिक गतिविधियों को लेकर यूरोपीय देश आशंकित हैं। इसी कारण अमेरिका और रूस के बीच छोटे स्तर का शीत-युद्ध जारी रहा है।

अपने राष्ट्रपति कार्यकाल की शुरु आत में ही बाइडेन ने शिखर वार्ता में भाग लेने का फैसला किया, जिसका उद्देश्य अपने यूरोपीय सहयोगियों को आस्त करने के साथ ही रूस के साथ अपने संबंधों को अपेक्षाकृत कम टकराव वाला बनाना था। इसका कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता का केंद्र अब यूरोप के बजाय एशिया बन गया है। करीब आधी सदी पहले अंतरराष्ट्रीय शक्ति संघर्ष पूंजीवाद और साम्यवादी विचारधारा पर आधारित था और इसका मुख्य केंद्र यूरोप था। शीत-युद्ध के उस दौर में अमेरिका ने ‘पिंग पांग’ कूटनीति के जरिए चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाया था और रूस के विरु द्ध चीन के साथ लामबंदी की थी। अमेरिका और चीन की इस जोड़ी ने दुनिया में रूस के दबदबे को रोकने की कोशिश की थी। यह दूसरी बात है कि साम्यवाद की आर्थिक और राजनीतिक कमजोरियों के कारण तत्कालीन सोवियत संघ आर्थिक रूप से कमजोर होता गया और अंतत: सोवियत संघ का विघटन हो गया।
चीन के साथ साझेदारी करते समय अमेरिका ने यह नहीं सोचा होगा कि चीन को उच्च प्रौद्योगिकी और भारी निवेश मुहैया कराकर वह अपने लिए भस्मासुर तैयार कर रहा है। पिछले एक दशक के दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि चीन विश्व की नंबर एक आर्थिक और सैनिक शक्ति बनने की ओर तेजी से आगे बढ़ रहा है। आर्थिक संकट हो या कोरोना महामारी, इनका सामना करने में चीन के संगठित समाज और शासन प्रणाली ने अन्य देशों की तुलना में बेहतर प्रबंधन किया है। विश्व की नंबर एक महाशक्ति बने रहने की रणनीति के तहत अमेरिका अपना पूरा ध्यान चीन और एशिया पर केंद्रित करना चाहता है। अमेरिकी प्रशासन दो मोचरे-रूस और चीन पर मुकाबला करने के बजाय चीन को ही निशाने पर रखना चाहता है। इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में क्वाड का सुरक्षा तंत्र स्थापित करने के पीछे भी अमेरिका का यही उद्देश्य है। इस रणनीति में भारत का केंद्रीय महत्त्व है, यही कारण है कि अमेरिका की कोशिश है कि भारत को इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में सक्रिय किया जाए। पूर्वी लद्दाख में चीन की आक्रामक गतिविधियों के कारण भारत की कूटनीतिक समझ और रणनीति को झटका लगा है। इसके बावजूद भारत अमेरिका, रूस, चीन और भारत की बहुध्रवीय व्यवस्था में टकराव या नये सैनिक गठबंधन की स्थापना के पक्ष में नहीं है। शिखर वार्ता के दौरान बाइडेन ने परोक्ष रूप से पुतिन को चीन के खतरों के बारे में आगाह किया। बाइडेन  की रणनीति प्रतीत होती है कि रूस और चीन के बीच बढ़ते सैनिक और आर्थिक गठजोड़ को कम किया जाए। पिंग-पांग कूटनीति का यह नया रूप है।
वैसे पुतिन हाल के दिनों में चीन के साथ अपने संबंधों पर बहुत जोर देते रहे हैं। दोनों देशों के संबंध आज उच्चतम स्तर पर हैं। गौर करने वाली बात है कि भारत और चीन के संबंध इस समय न्यूनतम स्तर पर हैं। इसके बावजूद इस त्रिकोण से आश्चर्य की बात यह है कि भारत और रूस के संबंध पहले जैसे अथवा पहले से भी अच्छे हो रहे हैं। पूर्वी लद्दाख के घटनाक्रम में रूस ने तटस्थ रवैया अपनाया था, लेकिन इस दौरान रूस ने रक्षा साजो सामान की आपूर्ति और तेज की थी। रूस की यह भूमिका भारत के लिए संतोष का विषय है।

डॉ. दिलीप चौबे


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