सरोकार : ब्लैक और दलित महिलाएं एक सी ही तो हैं
यूके से लगातार ये खबरें आ रही हैं कि अश्वेत और एशियाई मूल की महिलाओं को मातृत्व देखभाल मिलने में काफी दिक्कतें आती हैं।
सरोकार : ब्लैक और दलित महिलाएं एक सी ही तो हैं |
पीछे यह भी खबर आई थी कि यूके में श्वेत महिलाओं के मुकाबले अश्वेत औरतों की मृत्यु की चार गुना आशंका होती है। अब यूके मातृत्व देखभाल में जातीय अन्याय की राष्ट्रीय जांच में बहुत से लोगों ने यह शिकायत दर्ज कराई है कि मेडिकल प्रोफेशनल्स कई बार उनकी पूरी देखभाल करने से इनकार करते हैं। यह जांच चैरिटी बर्थराइट्स ने की है। इसमें यह भी पता चला है कि कई बार अश्वेत महिलाओं को अस्पताल में हिंसा और आवेश का शिकार भी होना पड़ता है।
जांच में कई किस्म की भेदभावपूर्ण टिप्पणियां मिली हैं। एक बांग्लादेशी महिला ने यह बताया कि उसे दर्द निवारक दवाएं सही समय पर नहीं दी गई और जबरन उस पर एक मेडिकल प्रोसीजर को थोपा गया। उससे कहा गया कि अगर उसने इस प्रोसीजर से इनकार किया तो उसने नवजात को सेलेबल्र पैल्सी हो सकता है। अफ्रीकी मूल की महिला को एक ऐसे दस्तावेज पर दस्तखत करने को मजबूर किया गया, जिसमें उसकी जातीयता से मेल खाने वाली श्रेणी ही नहीं थी। उससे कहा गया कि किसी भी श्रेणी पर चिह्न लगा दो। फिर उसके साथ आक्रामक व्यवहार किया गया। यूके में जो हाल अश्वेत और एशियाई मूल की महिलाओं का है, वही हाल भारत में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग महिलाओं का है। भारत में दलित महिलाओं को भी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में भेदभाव का सामना करना पड़ता है और लगभग सभी स्वास्थ्य संकेतकों में दलित महिलाएं पीछे रहती हैं। यह तथ्य राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से निकल कर सामने आया है।
स्वास्थ्य से संबंधित लगभग सभी मानकों में दलित महिलाओं का राष्ट्रीय औसत से खराब प्रदर्शन रहा है। जैसे-एनीमिया के मामले में हालिया आकड़ों के अनुसार, 25-49 आयु वर्ग की जो महिलाएं एनीमिया का शिकार हुई, उनमें से 55.9 फीसद दलित समुदाय से संबंधित हैं, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 53 फीसद है। जीवन प्रत्याशा के संदर्भ में, दलित महिलाओं की मृत्यु की औसत आयु सवर्ण महिलाओं से 14.6 साल कम है। उच्च जाति की महिलाओं की औसत मृत्यु आयु 54.1 वर्ष है, जबकि दलित महिलाओं के लिए यह 39.5 वर्ष है।
भारतीय कानून के तहत अस्पृश्यता के आधार पर अस्पताल, डिस्पेंसरी आदि में प्रवेश से इनकार करना एक दंडनीय अपराध है। फिर भी, उत्तर प्रदेश के पूरनपुर में 2016 में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के नर्सिंग स्टाफ ने कथित तौर पर एक गर्भवती दलित महिला को एडमिट करने से इनकार कर दिया। महिला को बिना किसी की सहायता के बच्चे को जन्म देना पड़ा। परिणामस्वरूप, जन्म के कुछ घंटे पश्चात बच्चे ने दम तोड़ दिया। भेदभाव का यह एकमात्र मामला नहीं है। दलितों को अस्पतालों में प्रवेश न देने या उपचार प्रदान न करने के कई मामले सामने आ चुके हैं। साथ ही बहुत सारे ऐसे भी मामले सामने आए हैं, जिनमें उन्हें एडमिट तो कर लिया गया, लेकिन उनके साथ उपचार में भेदभाव बरता गया। एनएफएचएस के आंकड़ों के अनुसार, दलित समुदाय की महिलाओं में से 70.4 फीसद को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इसके लिए अस्पताल जाने की इजाजत न मिलना, स्वास्थ्य सुविधाओं का दूर होना, धन की कमी जैसे कारणों को जिम्मेदार पाया गया।
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