मीडिया : जिसकी लाठी उसकी मीडिया
मीडिया बड़ा है या राज्य सत्ता को चलाने वाला शासक दल और उसका नेता? हमारा मानना है कि मीडिया भले ही अपने को ‘सबकी खबर लेने वाला’ बताता रहे लेकिन वह राज्य सत्ता से ऊपर नहीं है।
मीडिया : जिसकी लाठी उसकी मीडिया |
हाल में नंदीग्राम के एक बाजार की उस ‘घटना’ का कवरेज इसका प्रमाण है, जिसमें ममता दीदी का पैर टूटा। शुरुआत में दीदी ने माना कि यह उनके खिलाफ साजिश थी। चार-पांच लोगों ने उनको धक्का दिया।
कोई बारह घंटे बाद मिले चार वीडियोज जब चैनलों में दिखे तो साफ हुआ कि उनकी कार एक संकरे भीड़ भरे बाजार से जा रही थी, वे कार के दरवाजे को खोलकर जनता का अभिवादन कर रही थीं कि अचानक एक खंभे से दरवाजा टकराया और पैर को चोट लगी। उनके पीछे के दरवाजे पर उनके संग चलने वाले ‘सिक्यूरिटीमैन’ भी थे यानी कि साजिश न होकर यह एक ‘दुर्घटना’ थी। अगले रोज दीदी ने भी कुछ इसी तरह का बयान दिया कि यह ‘दुर्घटना’ थी लेकिन उनकी पार्टी की लाइन यही रही कि यह साजिश थी जो उनके राजनीतिक शत्रुओं ने की।
ये वीडियोज भी ‘अर्धसत्यवादी’ हैं। उनमें इतना तो दिखता है कि दीदी कार का दरवाजा खोले खड़ी हैं, हाथ हिला रही हैं लेकिन उसके बाद के सीन साफ नहीं हैं। क्या असली सीन का एक फुटेज न होगा? जिस दीदी के एक-एक क्षण को मीडिया कवर करता हो वहां सिर्फ ऐन ‘घटना’ के सीन न हों, ऐसा कैसे हो सकता है। पिछले दरवाजे पर दीदी के सिक्यूरिटीमैन के खड़े होने पर भी किसी ने दीदी को धक्का दिया और वे पकड़े भी नहीं गए-यह कहानी गले से नहीं उतरती। वीडियो ऐन घटना को नहीं दिखाते, क्या उनको संपादित किया गया या असली वीडियो गायब हैं?
ऐसे में आप लाख जांच करवा लें, वह भी विवादित ही रहनी है। दीदी का दल कहेगा कि साजिश थी और विपक्ष कहेगा कि ‘दुर्घटना’ थी।
यह चीज चुनाव आयोग की जांच के निष्कर्ष से पहले ही मानी जा सकती है कि जांच के निष्कर्ष को भी कोई नहीं मानने वाला। अपनी राजनीति इस कदर हेकड़ हो चुकी है कि कोई दल अपनी गलती नहीं मानता। हर दल मानता है कि ‘मेरा सच ही सारा सच है। बाकी का सच एकदम झूठ है।’ जिसकी सत्ता है, उसका सच है बाकी झूठ है यानी जिसकी लाठी उसकी भैंस। भैंस यानी सत्य! ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें सत्य को उसी तरह से ‘कंट्रोल’ किया गया है, जिस तरह से लाठी किया करती है।
हाथरस रेप कांड में तो यही देखा गया। शुरू में तो कैमरे ‘मौका ए वारदात’ तक जाते रहे लेकिन जैसे-जैसे राजनीति तेज हुई, मीडिया पर रोक लगा दी गई। कैमरे रोक दिए गए। इंटरनेट बंद कर दिया गया। कारण यह बताया गया कि इससे यूपी में जातिगत दंगा फैलने के आसार हैं। कुछ पत्रकरों को भी लपेटे में लिया गया। बाद में यह भी पता चला कि उनमें से कई पूर्व पत्रकार थे जो कुछ सदिग्ध तत्वों से जुड़े थे। उनके होने ने सत्ता के कंट्रोल को वैधता दे दी।
जाहिर है कि इन दिनों हर घटना में कितनी शक्तियां कहां-कहां सक्रिय हो जाती हैं, कोई नहीं जानता और सत्ता को मौका मिल जाता है कि ‘देश की एकता और अखंडता’ के नाम पर रोक लगाए।
हाथरस की घटना हो या लालकिले की घटनाएं या किसान आंदोलनों के कवरेज-सब में नाना संदिग्ध शक्तियों के एक्टिव होने के कारण इन दिनों हर मामूली सी घटना शांति और व्यवस्था का प्रश्न या तो बन जाती है, या बना दी जाती है और मीडिया पर गाज गिराई जाती है। लेकिन मीडिया भी कोई ‘तटस्थ’ चीज नहीं रह गई है। मीडिया पर ऐसे कंट्रोल का एक ताजा उदाहरण तेलंगाना में घट रहा है। तेलंगाना के ‘भैंसा’ इलाके में छह-सात रोज पहले सांप्रदायिक दंगा हुआ। कई दुकानों, बाजार, होटलों, घरों को आग लगा दी गई। एक दल के नेता को पकड़ा भी गया है। कुछ शुरुआती खबरों के बाद खबरों का फॉलोअप रोक दिया गया जो अभी तक रुका है। मीडिया को देखिए तो नहीं लगता कि ‘भैंसा’ में कुछ हुआ भी है। यहां सत्ताधारी दल टीसीआर और उसकी समर्थक ‘आइमिम’ का राज है।
मीडिया का यह ब्लॉकेड इतना टोटल है कि न प्रिंट मीडिया वहां जा पा रहा है, न टीवी जा पा रहा है, न सोशल मीडिया जा पा रहा है क्योंकि उसे भी ‘ब्लॉक’ कर दिया गया है।
हम देख सकते हैं कि जब जहां जिसकी चलती है, वहां वह अपनी चलाता है। बंगाल में मीडिया एक तरीके से कंट्रोल में है कि वह अभी तक घटना के क्लोजअप नहीं दे पा रहा। उधर, यूपी की सत्ता पहले ही हाथरस में मीडिया को ब्लॉक कर चुकी है। दिल्ली में ब्लॉक किया गया है। अब ‘भैंसा’ में विपक्ष वही कर रहा है। साफ है : जिसकी लाठी, उसकी मीडिया!
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