मीडिया : गुस्से का दौर और मीडिया
आइए, इस बार अपने खबर चैनलों की कुछ ‘बहसों’ की खबर लें। किसी का नाम ‘हुंकार’ है, किसी का ‘दंगल’ है, किसी का ‘डंके की चोट’ है।
मीडिया : गुस्से का दौर और मीडिया |
अंग्रेजी में कोई ‘अपफ्रंट’ होने का दावा करता है, तो कोई ‘नेशन वांट्स टू नो’ का। जितने खबर चैनल हैं, उतनी ही बहसें हैं। किसी एक खबर को बहस का विषय बना कर अपना पूरा दिन काटते हैं।
सबसे चर्चित बहसें ‘बलात्कारों’ या ‘स्त्री के प्रति अपराधों’ को लेकर होती हैं, या फिर किसी बड़े विपक्षी नेता या अभिनेता के ‘भ्रष्टाचार’ पर होती हैं, या ‘आतंकियों’ से ‘देश को खतरे’ को लेकर होती हैं, या ‘सांप्रदायिक’ और ‘विभाजनकारी’ मुद्दों पर होती हैं। अपने खबर चैनल प्राय: बीस मिनट में सौ खबर देकर अपना काम खत्म समझते हैं। बाकी के वक्त में किसी एक ‘सनसनीवादी’ या ‘पोलखोलवादी’ खबर को बहस का विषय बनाते हैं। एंकर भले बदल जाए लेकिन बहस करने वाले वही वही चेहरे हैं, जो दस बरस पहले थे। वे सर्वज्ञ होते हैं। आतंकवाद से लेकर भ्रष्टाचार तक के एक्सपर्ट होते हैं। ‘अंबानी के घर के आगे विस्फोटकों से भरी ‘कार’ मिली’ पर उसी भाव से बहस कर सकते हैं, जिस भाव से ‘कोरोना के टीके’ पर कर सकते हैं।
एक सौ पैतीस करोड़ के देश में एक सौ के करीब चिंतक। कौन कहता है कि हम ज्ञान दरिद्र हैं। हमारे पास एक से एक ज्ञानी है। और इन दिनों तो आप इनका चेहरा देखकर पहचान सकते हैं कि कौन क्या बकने वाला है, किसे ठोकने वाला है, और किसे बोलने से रोकने वाला है। इस काम के लिए पार्टियां उसे ही चुनती हैं, जो जोर-जोर से चिल्ला सके और अपने शोर से दूसरे को और श्रोताओं को बहरा कर दे यानी जो वाग्युद्ध में निष्णात हो।
इन बहसों में पहले एंकर विषय का परिचय देता है, फिर बहस करने वालों का परिचय देता है, फिर इनको आपस में लड़वा देता है, और जब तक आपस में लड़ते हुए वे एक दूसरे की ऐसी की तैसी नहीं कर देते, तब तक एंकर आराम करता है। जब ये एक दूसरे को कोस कर थक जाते हैं, तो एंकर अपने अखाड़े में दूसरे जोड़ों को खोल देता है। इस तरह, बहस के अंत तक आते-आते मूल मुद्दा गायब हो जाता है, और आप यह सोचते रह जाते हैं कि आखिर, मुददा था क्या? जैसे-जैसे ‘राजनीतिक ध्रुवीकरण’ बढ़ा है, वैसे-वैसे ये ‘बहसें’ और भी ‘बेशर्म’ हुई नजर आती हैं, और हमें और भी ‘बेशर्म’ होना सिखाती हैं। इस बेशर्मी की शुरुआत तब हुई जब चरचाओं में प्रवक्ता लोग ‘हमने एैसा किया तो तुमने भी वैसा किया था’ वाले तर्क देने लगे। ऐसे तकरे ने ‘पाप’ की तुलनात्मकता पैदा करके किसी के ‘पाप’ को ‘पाप’ नहीं रहने दिया। फिर धीरे-धीरे बहसों में वक्ता-प्रवक्ताओं का ‘ढीठपन’ बरसने लगा। हर प्रवक्ता ‘ढीठ’ हो गया। हर एक दूसरे को शर्मिदा करता और हर प्रवक्ता और निर्लज्ज होकर कहता है कि हमने जो किया कानून के हिसाब से किया। कर लो क्या कर लोगे। परेशानी है तो अदालत चले जाओ।
बहस में कौन सही बोलता है, कौन गलत बोलता है, इसका मानक ‘तर्क’ और ‘तथ्य’ नहीं रहे, बल्कि ‘हमें मेंडेट मिला है। जनता ने हमें हक दिया है कि हम ये करें’ वाला तर्क सबसे बड़ा तर्क बन गया। यही तर्क अब यहां पहुंच गया है कि ‘हमने अभी जीत हासिल की है तो हम सही हुए कि नहीं।’ तर्क के ऐसे शॉर्टकट निकाले जाने लगे हैं कि ‘तर्क-कुतर्क’ सब बराबर लगते हैं। जब हम ऐसे तकरे को कुतर्क की तरह दुहरता देखते हैं, तो ऐसी ‘बेशर्मी’ और भी मूल्यवान लगती है क्योंकि इसमें हम सबके ‘पाप’ छिप जाते हैं। और आजकल तो इससे भी सरल तरीका निकल आया है कि सरकार जो करे, विपक्ष उसका विरोध करेगा ही। उधर विपक्ष जो करेगा सरकारी प्रवक्ता उसका मजाक उड़ाएंगे ही।
जाहिर है कि इन दिनों हम तर्क की दुनिया में नहीं, कुतकरे की दुनिया में रहते हैं। यों टीवी की बहसों में अब भी कोई-कोई कह उठता है कि आप अपने इस अपराध के लिए देश से माफी मांगिए। उसके लिए माफी मांगिए, लेकिन कोई माफी नहीं मांगता। कहने की जरूरत नहीं कि टीवी की बहसों ने हमें इतना निर्लज्ज बना दिया है कि हम ‘सॉरी’ तक कहना भूल गए हैं। यही बेशर्मी हमारे दैनिक व्यवहार में समा गई है। हम हर समय सही हैं और वो हर समय गलत है- इस तर्क पद्धति से तो तर्क की हत्या हो जाती है, और उसकी जगह कुतर्क भरी जिद ले लेती है। जिद के पीछे अहंकार बोलता है। और शायद इसीलिए हर आदमी ‘फाइट’ के मूड में नजर आता है। इस गुस्से को मीडिया बार-बार बनाता-बढ़ाता है, और जनता को और गुस्सैल बनाता जाता है।
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