मुद्दा : क्षेत्रीय भाषा को मिले तरजीह
भाषा शास्त्री डेविड क्रिस्टल ने अपनी किताब ‘लैंग्वेज डेथ’ में लिखा था कि भाषा की मृत्यु और मनुष्य की मृत्यु एक-सी घटना है, क्योंकि दोनों का वजूद एक दूसरे के बिना नामुमकिन है।
मुद्दा : क्षेत्रीय भाषा को मिले तरजीह |
इधर भाषा से जुड़ी दो घटनाओं ने क्रिस्टल की चिंताओं को अपने देश के संदर्भ में उजागर किया है।
पहली घटना तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) से जुड़ी है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भारत सरकार, उसके विभागों और उपक्रमों में बहाली के लिए संघ लोक सेवा आयोग, रेलवे भर्ती बोर्ड, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और कर्मचारी चयन आयोग द्वारा ली जाने वाली परीक्षाएं क्षेत्रीय भाषाओं में आयोजित करने का अनुरोध किया है। फिलहाल स्थिति यह है कि इन आयोगों और विभिन्न एजेंसियों द्वारा हिंदी और अंग्रेजी में ही परीक्षाएं ली जाती हैं। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई नहीं करने वाले या हिंदीभाषी क्षेत्र से नहीं आने वाले छात्र इन प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल रहने से वंचित रह जाते हैं। केसीआर के मुताबिक सभी राज्यों के छात्रों को समान अवसर मुहैया कराने के लिए सभी प्रतियोगी परीक्षाएं क्षेत्रीय भाषाओं में कराई जानी चाहिए।
दूसरी घटना के केंद्र में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा हाल में लिया गया फैसला है, जिसके मुताबिक आईआईटी और एनआईटी संस्थानों में आगामी सत्र से ही छात्रों को हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने का मौका मिलेगा। इस फैसले का उद्देश्य छात्रों को उसी भाषा में उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने का अवसर दिलाना है, जिसमें उन्होंने स्कूली पढ़ाई की है। हिंदीभाषी राज्यों के नजरिए से शिक्षा मंत्रालय के फैसले को देखें, तो यह इस वजह से जरूरी लगता है कि कि हिंदी पट्टी में भी अंग्रेजी राजकाज और रोजगार की भाषा बनी हुई है।
अंग्रेजों की गुलामी से मिली आजादी के बाद भी कभी वह स्थिति बनी ही नहीं कि हिंदी उच्च तकनीकी शिक्षा का और आगे चलकर रोजगार का माध्यम बनती। उल्टे मुसीबत यह हुई कि राज्य शिक्षा बोडरे में हिंदी माध्यम चुनने वाले छात्र जब डिग्री या पेशेवर पाठय़क्रमों में दाखिला लेने पहुंचते तो सारी पढ़ाई में अंग्रेजी पाकर उनकी आधी से ज्यादा ऊर्जा पराई भाषा से जूझने में ही खर्च हो जाती है। आज भी तमाम प्रतिष्ठान अगर यह शिकायत करते मिलते हैं कि उन्हें डिग्रीधारी नौजवान तो मिलते हैं, लेकिन कौशल (स्किल) में बेहद पिछड़े होते हैं, तो इसकी वजह अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा है जिससे जुड़े मर्ज पर अब नजर गई है। पर मुश्किल यह है कि जैसे ही उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षा में हिंदी या क्षेत्रीय भाषा की पहल की जाती है, अंग्रेजी के पैरोकार उसके अंधविरोध पर उतारू हो जाते हैं। उनका तर्क होता है, विज्ञान-इंजीनियरिंग-चिकित्सा की शिक्षा हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षक कहां से आएंगे। किताबें रातोंरात कैसे अनूदित होंगी, संदर्भ कोष इन भाषाओं में कैसे आएंगे। अंग्रेजी को छोड़ा गया तो शिक्षण संस्थानों की विश्व रैंकिंग का क्या होगा यानी इससे उच्च, पेशेवर शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं का पूरा फोकस ही बिगड़ जाएगा। समस्या की जड़ यही है कि देश को आजादी के 70 सालों में भारत बनाम इंडिया या हिंदी-क्षेत्रीय भाषा बनाम अंग्रेजी में बांटा गया है, और इसकी मानसिकता दिनोंदिन बढ़ती ही जाती रही है। ऐसा राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते हुआ। इसे समझने के लिए चीन-जापान आदि देशों की तरक्की देखनी होगी। इसी प्रसंग में केसीआर के आग्रह को समझना होगा कि क्यों प्रतियोगी परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं के विकल्प की मांग कर रहे हैं। असल में जो बिगाड़ अंग्रेजी ने हिंदी पट्टी में किया है, ठीक वही काम अंग्रेजी के साथ मिलकर हिंदी ने दक्षिण में किया है।
मूल प्रश्न है कि अंग्रेजी के बजाय हिंदी या क्षेत्रीय भाषा के विकल्प से रोजगार या देश की तरक्की पर कोई विपरीत प्रभाव तो नहीं पड़ेगा। इसका जवाब चीन-जापान जैसे उदाहरण हैं। इन देशों के लिए अंग्रेजी कारोबारी भाषा है और उसका प्रयोग उसी नजरिए से होता है, उसे पूरे जीवन का हिस्सा नहीं बनाया जाता। अंग्रेजी ही देश के चौतरफा विकास का मानक होती तो भारत को चीन, जापान, द. कोरिया से मीलों आगे होना चाहिए था। उल्लेखनीय है कि दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बीस में से छह भाषाएं हमारे देश में हैं। ये हैं हिंदी, बांग्ला, तेलुगू, मराठी, तमिल और पंजाबी। लेकिन विडंबना है कि हमें विकास अंग्रेजी के सहारे ही होते दिखाई देता है। त्रासदी यह भी कि हमारा देश संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का परचम फहराना चाहता है, लेकिन हिंदी और अन्य प्रमुख क्षेत्रीय भाषा को राजकाज से लेकर उच्च तकनीकी शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में या कहें कि रोजी-रोटी की भाषा बनाने से तकलीफ है।
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