अन्नदाता : मुनाफे का मन बनाना होगा

Last Updated 24 Dec 2020 12:26:30 AM IST

अन्नदाता धान-धन से भरापूरा रखते हैं तो अन्नपूर्णा हमारे घरों की खान-पान की जरूरतों को पूरा करते हुए परिवारों को खुशहाल रखती हैं।


अन्नदाता : मुनाफे का मन बनाना होगा

इसीलिए दुनिया भर में खेतों, किसानों और औरतों को शामिल करते हुए कई प्रथाएं-कथाएं कायम रही हैं। रोम में अन्न की देवी ‘सेरेस’ और ग्रीक कथाओं में ‘दिमितर’ नाम की देवी के हाथ खेती-उपज-धरती की सलामती का जिम्मा रहा। दुनिया की हर सभ्यता ने अन्न को पूजा, अपनी भूख को समझा तो आगे बढ़ती दुनिया ने भी फसल और खेतों से अपने रिश्ते को सींचते हुए मान्यताओं को पीछे नहीं धकेला कभी।
सोच को आगे ले जाने के लिए दुनिया भर में हो रहे बेहतर प्रयोगों को अपनाया भी तो मिट्टी-पानी की परख करते हुए कमाई में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की भरपूर कोशिश भी की। केवल गमछा, पगड़ी, धोती ही नहीं बल्कि चूनर, घाघरा और पल्लू वाली पहचान भी किसान की रही है। किसानी के काम में दोनों की मेहनत उतनी ही रही है भले ही मेहनताना कभी बराबर नहीं रहा। जिन-जिन देशों में खेती और उपज पर खासा काम हुआ है वहां उनकी काम और फैसलों में हिस्सेदारी हर मायने में रही है, लेकिन उसे नजरअंदाज करने का असर बाजार पर भी रहा है, न उसके पहनावे के मुताबिक औजार हैं ना मशीनें और सबसे बड़ी बात ये कि खेत की जमीन में उसका नाम ही शामिल नहीं। भारत की राष्ट्रीय कृषि नीति के लक्ष्यों में सभी किसानों से जुड़ी किसी भी नीति में औरतों को दरकिनार नहीं करने की हिदायत भी शामिल है।

र्वल्ड बैंक के आकलन में 2050 तक दुनिया की आबादी में 220 करोड़ तक का इजाफा हो जाएगा और दुनिया का पेट भरने के लिए 70 फीसद खाना और उपजाने की जरूरत होगी। मजदूर और किसान के फर्क को खत्म करते बाजार के बीच तकनीक अब सबसे खड़ी ताकत की तरह खड़ी है। इजरायल में साम्यवाद के मॉडल पर बने ’किबूत्स’ अमीर और तसल्ली वाली जिंदगी का नमूना है, जहां सैकड़ों परिवार साझा जीवन बिताते हैं। इस पूरी बस्ती में किसी रिसार्ट जैसी आधुनिक सुविधाएं मुहैया हैं, लेकिन कमाई काम के मुताबिक कम ज्यादा या कम नहीं बल्कि सबकी बराबर है। फिर चाहे आप किसान हों या डॉक्टर या कुछ और। पानी की बूंद-बूंद बचत की मिसाल बन चुके ये किसान दुनिया भर से अपनी जानकारी और तकनीक बांटने लगे हैं। दक्षिण कोरिया ने पारम्परिक खेती ‘जिनसेंग’ और नई तकनीक का ऐसा मेल बिठाया है कि वो इस पर नाज करते हुए सबको अपने यहां की लहलहाती फसलें आकर देखने की दावत देते हैं। धरती को हर मायने में संभाल कर रखने वाली खेती से वो अपने मुश्किल-से-मुश्किल इलाकों को उपज लायक बनाने और नमी, जैव-विविधता, देशी फसलों को कायम रखते हुए किसानों को उनके ही संगठन के जरिए दुकान और दाम तक की पूरी सहूलियत देने में कामयाब नजर आते हैं।
जहां अफ्रीकी देशों में दूसरे काम धंधों के मुकाबले आज भी खेती पर जोर है, लेकिन तकनीक में ज्यादा आगे नहीं जा पाने का खमियाजा ये है कि दुनिया के बाजार में उसकी दखल अभी कम ही है और मौसम और जलवायु कहर में ये देश खाने के संकट से घिरे हैं।  दुनिया भर की कमाई में खेती का हिस्सा चार फीसद ही है, लेकिन कई देशों ने इसे 25-50 फीसद कमाई तक पहुंचाकर देश और दुनिया में अपनी मिट्टी को कीमती बनाए रखा है। बाकी के मुकाबले किसानी के भरोसे आगे बढ़ने वाले देशों की अर्थव्यवस्था 200 फीसद टिकाऊ मानी जाती है। कई देशों ने कुछ खास फसल पर महारत हासिल कर उसे अपनी पहचान का हिस्सा बना लिया है। आलू की चार हजार किस्मों के साथ ही पेरू का अपना कद है भले ही चीन आलू की उपज सहित बड़े पैमाने पर खेती को तकनीक से जोड़ने में बाजी मार रहा है। सिर्फ अनाज, फल और फूलों की खेती ही नहीं बल्कि डेयरी, कीट पालन, मुर्गी, मछली और पशुपालन वाले कारोबार भी हैं, जिन्होंने किसानों को पनपने में मदद की है। न्यूजीलैंड की खेती सहित भेड़ पालन और डेयरी पर अच्छी पकड़ है तो रूस ने 40 फीसद जमीन खेती के लिए बचा रखी है। वहां खेती पर किसान-कारोबारी ही हावी हैं और कमाई में भी वही आगे हैं।
उजबेकिस्तान जैसे देश ने जैविक खेती में कई नवाचार कर उसे अपनी खासियत बनाया है तो जापान ने खेती की जमीन भरी-पूरी नहीं होने के बावजूद धान, सोयाबीन और फलों के बूते अपने को खड़ा रखा है। दक्षिण अफ्रीका भी अनाज की उपज में दुनिया भर में आगे की कतार में खड़ा है। कनाडा जैसा देशों ने दो दशक पहले ही खेती को कम्प्यूटर से जोड़कर एक-एक पेड़ को निवेश के तौर पर संभालना शुरू किया और खान-पान के लेन-देन पर अच्छी पकड़ बना ली। यूं दुनिया भर के कई अव्वल देशों में वहां के आदिवासियों की हकीकत को छिपा कर रखा जाता है, जबकि जल-जंगल-जमीन सहित अब जमीर के रखवाले भी सिर्फ  वही बचे रह गए हैं। हमारे अपने देश के सकल घरेलू उत्पाद में 15-16 फीसद की भागीदारी वाली खेती में करीब 55 फीसद आबादी लगी है, लेकिन खेती फायदे का सौदा अब भी नहीं। देश में ऐसे किसानों की कमी नहीं, जो जोखिम लेने की अपनी सहज काबिलियत का इस्तेमाल कर दुनिया भर की अच्छी सीख लेकर मसालों, दालों और जैविक उपज के बाजारों का हिस्सा बन रहे हैं।
राजस्थान के ही गांवों में मिनी-इजरायल कहे जाने वाले गांव भी हैं तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और दक्षिण के राज्यों में स्मार्ट-फार्मिग अपनाकर छोटे खेतों में कई फसल एक साथ लेकर कुदरत से तालमेल बिठाने वाले किसान भी। फलों के बगीचों को जैविक खाद से सींचकर अच्छी कमाई करने वाली महिला किसान भी हैं तो पानी को सहेज कर पूरे इलाके की नमी लौटाने और मजदूर से किसान बनने वाली कई कहानियां भी हैं, जो खेती में मुनाफा भी पा रहे हैं और अपनी हैसियत भी बढ़ा रहे हैं। एक-एक जोत को तिजोरी की तरह नहीं बच्चे की तरह पालने वाले किसान को मुनाफे वाला मन बनाना होगा ताकि कुबेरी ताकतों से मुकाबला कर पाएं। उसके पास कुदरत और तकनीक के तालमेल वाला दिमाग और मेहनतकश हाथ तो हैं ही, दरकार नीतियों के जमीन तक पहुंचने की भी है जो उसे कुदरत के रखवाले के साथ ही कारोबारी की तरह देखे। तब देश की कमाई तो बढ़ेगी ही दुनिया भी भूख भी काबू में आ जाएगी।

शिप्रा माथुर


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment