शिवसेना : कैसी बनाएगी महाराष्ट्र की तस्वीर?
विगत दिनों महाराष्ट्र में बड़े सियासी ड्रामे के बाद राज्य को मुख्यमंत्री तो मिला लेकिन उठापठक अभी भी जारी है। सभी पार्टी के मुखियाओं ने तो मजबूरी में दिल-दिमाग मिला लिये लेकिन निचले स्तर पर खींचातानी देखने को मिल रही है।
शिवसेना : कैसी बनाएगी महाराष्ट्र की तस्वीर? |
बीते बुधवार मुंबई के धारावी में एक राजनीतिक कार्यक्रम में करीब 400 शिवसैनिकों ने बीजेपी का दामन थाम लिया। कार्यक्रम के दौरान एक कार्यकर्ता ने कहा, ‘शिवसेना ने उन पार्टयिों के सहयोग से सरकार बनाई है, जो हिन्दुत्व के खिलाफ रहती हैं। जब शिवसेना ऐसे दलों का हमेशा से विरोध करती रही तो क्या सत्ता के लालच में इतनी गिर गई कि बाला साहेब के उसूलों को भी भूल गई’। पहला ऐसा मौका है जब शिवसेना के इतने सारे कार्यकर्ता एक साथ अन्य पार्टी में गए हों। पार्टी के लिए बड़ा झटका भी माना जा रहा है।
पिछले दिनों अपने पूर्व सहयोगी दल बीजेपी से ढाई-ृढाई साल के फार्मूले पर बात न बनने के बाद शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई है। फिलहाल सभी के मन में प्रश्न एक ही है कि क्या कट्टर हिन्दू छवि वाली शिवसेना मौजूदा सहयोगी दलों, जिनका वह विरोध करती आई है, के साथ सरकार संचालित कर पाएगी? हालांकि बीते कुछ वर्षो में राजनीति में कुछ अटपटा नहीं लगता। जैसा कि जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी का सरकार बनाना, उत्तर प्रदेश में कट्टर प्रतिद्वंद्वी सपा-बसपा का साथ चुनाव लड़ना। ऐसे तमाम सबके समक्ष हैं। इस तरह की जुगलबंदी ज्यादा लंबी नहीं चल पाती।
शिवसेना ने 1972 में पहली बार चुनाव लड़ते हुए 26 उम्मीदवार उतारे थे और मात्र एक सीट जीत कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। उस समय महाराष्ट्र में 270 विधानसभा सीटें थीं और शिवसेना का वोट दो प्रतिशत भी नहीं था। 1978 में शिवसेना ने 35 सीटों पर चुनाव लड़ा। उसका खाता भी नहीं खुला। इस घटना से बाला साहब ठाकरे बेहद निराश हुए और उन्होंने इसके बाद भारी मंथन करते हुए पार्टी में जान फूंकी और कार्यकर्ताओं को जोड़ना शुरू कर दिया। 1990 में 183 सीटों पर चुनाव लड़ा और 52 सीट जीतकर महाराष्ट्र की राजनीति में अपना वर्चस्व कायम किया। 1995 और 1999 में 69 सीट, 2004 में 62 सीट, 2009 में 160 सीट पर लड़ते हुए 44 सीट, 2014 में पहली बार सभी सीटों पर किस्मत अजमाई लेकिन 63 सीट पर विजय प्राप्त की थी और वोट 20 प्रतिशत तक आया।
हाल ही में हुए 2019 के चुनाव में शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें बीजेपी 162 और शिवसेना 126 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। शिवसेना ने 56 सीटें जीतीं। नब्बे के दशक से वर्चस्व में आने के बाद से लेकर अब तक शिवसेना का वोट प्रतिशत न कभी इतना बढ़ा कि जिससे वो कभी बहुत ज्यादा उत्साहित हुई हो और न ही ग्राफ इतना गिरा कि राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में विफल हुई हो। अपने वोट प्रतिशत को एक सामान ही रख पाई है। लेकिन इस बार राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार शिवसेना मुख्यमंत्री पद के लिए स्वार्थ में नजर आई। हालांकि इस को लेकर कोई दो राय नहीं कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना हमेशा किंगमेकर की भूमिका निभाती आ रही है। इस बार भी चुनावों से पहले बीजेपी व शिवसेना ने दूर-दूर तक नहीं सोचा था कि वो मिलकर सरकार नहीं बना पाएंगे।
दोनों पार्टयिां अपनी जिद्द पर अड़ी रहीं, जिससे दोनों की किरकिरी भी खूब हुई। इसके अलावा, महाराष्ट्र के इतिहास में पहली बार देखने को मिलेगा कि जब शिवसेना को राज्य का गृह मंत्रालय मिलेगा। दो दशकों की बात करें तो 1999 से 2014 तक गृह मंत्रालय लगातार एनसीपी के पास रहा। फिलहाल सरकार में बैठे मौजूदा दल एक-दूसरे के दबाव समझते हुए कुछ भी करने को तैयार हैं, तो इसलिए एनसीपी सबसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालय शिवसेना को देने के लिए तैयार हो गई। बहराहल, देश की वित्तीय राजधानी को संचालित करना आसान नहीं है।
शिवसेना नई पार्टी नहीं है, लेकिन ठाकरे परिवार से पहली बार किसी सदस्य ने कमान संभाली हैं तो चुनौतियां और ज्यादा समझी जा रही हैं। इसलिए उसे हर कदम समझदारी से रखना होगा। साथ ही, उसे अपने कार्यकर्ता संभालने की जरूरत है क्योंकि किसी नेता के दल बदलने से इतना फर्क नहीं पड़ता जितना कार्यकर्ता के बागी होने से। चिंता का विषय यह भी है कि अभी तो निगम के अलावा कई और छोटे बड़े चुनाव होने हैं, ऐसे में शिवसेना क्या कहकर अपनी परफोमेंस दिखाएगी? जैसे कि ऐसे चुनावों में तो पूर्ण रूप से कार्यकर्ता ही मुख्य किरदार निभाता है।
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