विश्लेषण : पहले गांधी को समझिए फिर..

Last Updated 04 Dec 2019 03:40:26 AM IST

गौर करने की बात है कि वर्ष-2019 गांधी जी की जन्मतिथि का 150वां वर्ष है। इस पावन मौके पर आत्ममंथन की बजाय भारत में गांधी के लिए गंदे बोल और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को शहीद घोषित करने की नापाक कोशिशें हो रही हैं।


विश्लेषण : पहले गांधी को समझिए फिर..

ऐसे में हमारे पास दो रास्ते हैं: पहला, गांधी को गाली देने वालों की बात ही न करें; चुप्पी साध लें; दूसरा, चुप्पी तोड़ दें। गांधी को गाली देने वालों के बारे में फिलहाल इतना ही कह सकता हूं आप इन्हें क्षमा कर दें क्योंकि ये गांधी जी को  ठीक से नहीं जानते।

कहना न होगा कि बहन प्रज्ञा ने जिन शब्दों में गांधी के योगदान को नकारने की कोशिश की और एक वक्त में काटजू साहब ने जिस तर्कहीन तर्ज पर गांधी की देशभक्ति को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की; मुझे लिखने में कोई गुरेज नहीं कि दोनों ने क्रमश: अपने-अपने नाम के आगे लगे साध्वी और न्यायमूर्ति जैसे पवित्र शब्दों से ही परहेज साबित करने की कोशिश की है। राष्ट्रपिता पर आक्षेप लगाकर अपनी राष्ट्रवादिता पर ही प्रश्न चिह्न लगाया है। याद कीजिए कि मौका देखकर गोरखपुर फिल्मोत्सव के दौरान अंरुधति रॉय ने भी गांधी  को ‘कॉरपोरेट-प्रायोजित प्रथम एनजीओ’ का तमगा दे डाला था। आज गांधी जिंदा होते तो सबसे पहले ऐसे लोगों की शुचिता और स्वास्थ्य सेवा करने में जुट जाते। गौर करने की बात है कि इस दुनिया में महान विचारक और भी बहुत हुए किंतु महात्मा गांधी भिन्न इसीलिए थे कि उन्होंने दूसरे से जो कुछ भी अपेक्षा की, उसे पहले अपने जीवन में लागू किया। गांधी विचारों पर चिंतन, मंथन, बहस और मानने, न मानने पर प्रतिबंध कहां हैं? गांधी की इसी खूबी ने उनके जन्म के 146 वर्षों बाद भी उन्हें जीवित रखा है। हकीकतन जब तक दुनिया में झूठ और अनाचार रहेगा, गांधी दुनिया के दिलों की कालिख साफ करते रहेंगे।

ध्यान रहे कि 1915 में दक्षिण अफ्रीका से देश लौटने वाला गांधी अप्रैल, 1893 में एक व्यापारिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने गया मोहनदास कर्मचंद गांधी नामक एक वकील मात्र नहीं था। 1915 को भारत लौटा गांधी ऐसा गांधी था, जो अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही यह बात सिद्धांत की तरह स्थापित कर चुका था कि शांतिपूर्ण तरीके से सत्य का आग्रह कर भी न्याय हासिल किया जा सकता है। 1917 के चंपारन प्रकरण के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘महात्मा’ और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ‘बापू’ की उपनाम दिया। क्या गांधी को नकारना टैगोर, नेताजी सुभाष को नकारना नहीं है? मेरे ख्याल से गांधी के सूत और तकली को नकारना तो अंतिम जन की उस पूरी चेतना को ही नकार देना है, कभी चरखा, जिसके उत्थान का औजार बनकर सबसे आगे दिखा। अपने सपनों के भारत का सपना संजोते वक्त गांधी लिखते हैं-‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें गरीब से गरीब आदमी भी महसूस कर सके कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसका महत्त्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें ऊंच-नीच का कोई भेद न हो और सब जातियां मिल-जुल कर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीजों के अनिष्टों के लिए कोई स्थान न होगा। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार होंगे। सारी दुनिया से हमारा संबंध शांति और भाईचारे का होगा’। क्या गांधी का यह सपना गुरेज करने लायक है?
आखिरकार, कोई कैसे भूल सकता है कि गांधी ने स्वाधीनता संग्राम में ही अपने योगदान का एक अलग पन्ना नहीं लिखा, बल्कि भारत की गरीब-गुरबा और कमजोर आबादी के उत्थान का भी नया ककहरा लिखकर दिखाया? गांधी दर्शन के बारे में साध्वी प्रज्ञा को एक और बात जानना जरूरी है कि गांधी दर्शन, हिंदू धर्म के मूल दर्शन से बहुत भिन्न नहीं। गांधी ने कई औरों से सिर्फ भिन्न यह किया कि भारत के मौलिक ज्ञान और आस्था को कर्म मार्ग में उतार दिया। क्या गलत किया? ऐसा करने वाले को आप अंग्रेजों का एजेंट कहेंगे या मूल भारतीय संस्कृति का वाहक? आप तय करें। संयुक्त राष्ट्र महासभा जैसी दुनिया की सर्वोच्च  संस्था ने भारत जैसे गरीब राष्ट्र के राष्ट्रपिता के जन्म दिवस को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में प्रति वर्ष मनाने का फैसला यूं ही नहीं लिया था। गांधी विचार में कहीं खोट होता तो गांधी मार्ग पर चलने वाले नेल्सन मंडेला, बिशप डेसमंड टुटु और आंग सां सू की जैसे लोग विश्व के सर्वोच्च  सम्मानों से सम्मानित न किए जाते।
गांधी टोपी वाले अन्ना के आंदोलन के ज्वार में आधुनिक युवा एक नहीं होता। कोई कैसे नकार सकता है कि दलितों को अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहेब आम्बेडकर का सत्याग्रह, विनोबा का भूदान, जेपी की संपूर्ण क्रांति, महाराष्ट्र के महाद शहर का पानी सत्याग्रह, नासिक का धर्म सत्याग्रह, चिपको आंदोलन, टिहरी विरोध में सुंदरलाल बहुगुणा का हिमालय बचाओ, मेधा का नर्मदा बचाओ, राजेन्द्र सिंह का यमुना सत्याग्रह, मप्र का जल सत्याग्रह, संत गोपालदास का गो अनशन, प्रो. जीडी अग्रवाल  और स्वामी निगमानंद के गंगा अनशन, भू-अधिकार का ताजा एजेंडा, गांधी मार्ग पर चलकर ही चेतना और चुनौती का पर्याय बन सके। गांधी को कांग्रेस का मानने की भूल के कारण प्रज्ञा, प्राची, अरुंधति रॉय या काटजू साहब ने ऐसा कहा, तो भी उन्हें याद कर लेना चाहिए कि यह गांधी थे, जो मानते थे कि राष्ट्रीय कांग्रेस, सिर्फ हिंदुस्तान की आजादी हेतु साधन और सामर्थ्य जुटाने का साधन थी। आजादी के बाद वही थे, जो मानते हैं कि राष्ट्रीय कांग्रेस की उपयोगिता खत्म हुई। यह बात और है कि सत्ता के लोभ में तत्कालीन कांग्रेसियों ने गांधी के उस सुझाव पर गौर नहीं किया। भारत आज सचमुच एक परिवर्तनकारी मोड़ पर खड़ा है। एक ओर चुनौतियां हैं, वहीं दूसरी ओर आशाएं।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग इस वक्त को कभी अहिंसक गांधी की हत्या करने वाले हिंसक नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त मार्ग बताकर, तो कभी मदर टेरेसा पर आक्षेप लगाकर, कभी सांई प्रकरण और कभी गांधी को गाली देने में गंवाते रहे हैं। ये ऐसे प्रकरण हैं, जिनसे भारत के सबसे कमजोर इंसान की जिंदगी में सुधार में कोई सहयोग नहीं हो सकता। अच्छा तो यह होता कि गांधी युग की एक सदी के पूरा होने के वर्ष-2015 में भारत पिछली सदी को सामने रखकर तलाश करता कि अगली सदी को रोशनी कहां से मिलेगी। बेहतर हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और उनकी कृपा को मूर्ति में ढूंढने वाले, उन्हें चरित्र निर्माण की दायित्व पूर्ति में ढूंढें। यह गांधी दर्शन भी है, और भारत का सदियों के अनुभवों पर जांचा-परखा राष्ट्र दशर्न भी।

अरुण तिवारी


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