तकनीकी शिक्षा : संजीदा होना होगा
सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक अहम फैसला दिया है कि तकनीकी शिक्षा पत्राचार के माध्यम से नहीं की जा सकेगी. सतही रूप से यह बात ठीक लगती है कि तकनीकी तालीम घर बैठे कैसे हो सकती है?
तकनीकी शिक्षा : संजीदा होना होगा |
खास तौर पर जब ऊंची तालीम के मानकीकरण करने वाले आधिकारिक इदारे यूजीसी और एआईसीटीई ने जिन सैकड़ों डीम्ड यूनिवर्सिटीज को इस तरह के पत्राचार के कार्यक्रम चलाने की इजाजत नहीं दी है, तो उनकी डिग्री को मान्यता नहीं मिलनी चाहिए. दूसरी ओर वाजिब सवाल यह भी है कि ऐसे मुल्क में जहां आधी से अधिक जनता मिडिल स्कूल तक नहीं पहुंच पाती है और जहां सरकार ‘स्किल इंडिया’ जैसे छलावों से अधिकतर युवाओं को मुख्यधारा की तालीम से अलग कर रही है, तो ये लोग कहां जाएंगे?
ऐसा अनुमान है कि इस फैसले का असर उन हजारों युवाओं पर पड़ेगा, जिन्हें 2005 के बाद पत्राचार से तकनीकी कोर्स की डिग्री मिली है. उनके सर्टिफिकेट अमान्य हो जाएंगे और इसके आधार पर मिली नौकरियों से उन्हें निकाल दिया जा सकता है या आगे पदोन्नति से उन्हें रोका जा सकता है. 2005 से पहले भी पांच साल तक ऐसी डिग्री पाने वालों को दोबारा एआईसीटीई अनुमोदित इम्तिहान पास करने होंगे.
पत्राचार से जुड़े कई सवाल हैं, जैसे किसी संस्थान को अपने मुख्य कैंपस से कितनी दूर तक पत्राचार का दायरा रखने की अनुमति है, इत्यादि. इन पर भी अदालतें समय-समय पर राय देती रही हैं. यह सब मुद्दे इसलिए हैं कि बहुत सारी डीम्ड यूनिवर्सिटी फर्जी सर्टीफिकेट जारी करती रही हैं. पंजाब में गांव में डॉक्टर के पास मदुरै के विश्वविद्यालय की डिग्री हो तो शक होता है कि क्या माजरा है? इसलिए सतही तौर पर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह कदम सराहनीय है. पर पत्राचार पर इन सवालों से अलग कई बुनियादी सवाल हैं. आखिर पत्राचार से पढ़ने की जरूरत क्यों होती है? जो लोग गरीबी या और कारणों से नियमित पढ़ाई रोक कर नौकरी-धंधों में जाने को विवश होते हैं, उनके लिए पत्राचार एक उत्तम माध्यम है.
नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई-लिखाई कर वे अपनी योग्यता बढ़ा सकते हैं और अपनी तरक्की के रास्ते पर बढ़ सकते हैं. पत्राचार का मतलब यह नहीं होता कि पूरी तरह घर बैठकर ही पढ़ाई हो; बीच-बीच में अध्यापकों के साथ मिलना, उनके व्याख्यान सुनना, यह सब पत्राचार अध्ययन में लाजिम है. जाहिर है इस तरह से पाई योग्यता को मुख्यधारा की पढ़ाई के बराबर नहीं माना जा सकता है. साथ ही, ऐसे विषय जिनमें व्यावहारिक या प्रायोगिक ज्ञान जरूरी हो, उनमें पत्राचार से योग्यता पाना मुश्किल लगता है. इसलिए ज्यादातर पत्राचार से पढ़ाई मानविकी के विषयों में होती है. पहले अध्यापकों के प्रशिक्षण की पढ़ाई का अनुमोदन भी एआईसीटीई करती थी. बाद में इसके लिए एनसीटीई बनाई गई. पर क्या बेहतर उस्ताद बनाने का प्रशिक्षण पत्राचार से संभव है? वैसे ये बातें तालीम के स्तर की हैं. कोई कह सकता है कि ऐसी समस्याओं का निदान ढूंढ़ा जा सकता है.
सूचना प्रौद्योगिकी जैसे कुछ तकनीकी विषय ऐसे हैं, जिन पर कुछ हद तक पत्राचार से पढ़ाई हो सकती है. जिस तरह की कुशलता की जरूरत बाजार में है, कॉल सेंटर में काम जैसी कुशलता इससे मिल सकती है. पर गहरा सवाल यह है कि क्या हम मुल्क के नौजवानों को बाजार के पुजरे में तब्दील कर रहे हैं? क्या पत्राचार से पढ़ने वाले युवा अपनी मर्जी से ऐसा कर रहे हैं या कि वे मुख्यधारा से अलग पढ़ने को मजबूर हैं? कहने को मौजूदा हुकूमत का जुमला है-मेक इन इंडिया. जुमलेबाजी से चीन जैसे विकसित मुल्क के खिलाफ हौव्वा खड़ा किया जा सकता है, देश के संसाधनों को जंग में झोंका जा सकता है, पर असल तरक्की के लिए मैन्युफैक्चरिंग या उत्पादन के सेक्टर में आगे बढ़ना होगा.
मुख्यधारा की तालीम से वंचित रख युवाओं को ‘स्किल’ के नाम पर उत्पादन के सेक्टर से हटाकर कामचलाऊ अंग्रेजी और हां-जी हां-जी सुनाने वाली सेवाओं में धकेला जाएगा तो ‘मेक’ कौन करेगा? आज तकनीकी तालीम का अधिकतर, तकरीबन 95%, निजी संस्थानों के हाथ में है. सरकारी मदद से चलने वाले संस्थानों में सिर्फ तेईस आईआईटी, बीसेक आईआईआईटी, इकतीस एनआईटी के अलावा, यूनिवर्सिटीज में इंजीनियरिंग कॉलेज हैं. इसी तरह, मेडिकल कॉलेज भी सरकारी बहुत कम ही हैं. यानी कि तकनीकी तालीम में पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का फायदा नाममात्र का है.
निजी संस्थानों में आरक्षण उन पैसे वालों के लिए है, जो कैपिटेशन फीस देते हैं. सरकारी एलिट संस्थानों से पढ़कर बड़ी संख्या में छात्र विदेशों में चले जाते हैं. संपन्न वगरे से आए इन छात्रों में देश और समाज के प्रति वैसे ही कोई प्रतिबद्धता कम होती है. आम युवाओं को इन संस्थानों तक पहुंचने का मौका ही नहीं मिलता है. कहने को भारत दुनिया में सबसे अधिक इंजीनियर पैदा करता है, पर इनमें से ज्यादातर दोयम दर्जे की तालीम पाए होते हैं. यही हाल डॉक्टरों का भी है. ऐसा इसलिए है कि पूंजीपतियों के हाथ बिके हाकिमों को फर्क नहीं पड़ता है कि मुल्क की रीढ़ कमजोर हो रही है, उन्हें सिर्फ कामचलाऊ सेवक चाहिए जो मौजूदा व्यापार की शर्तों में फिट हो सकें. तकनीकी विषयों में शोध के स्तर में भी भारत का स्तर चीन और जापान जैसे मुल्कों से बहुत पीछे है.
इसलिए घोटाले नहीं भी होते तो भी पत्राचार से तालीम पर बुनियादी सवाल खड़े होते. क्या अच्छे स्तर की तकनीकी तालीम, अच्छी प्रयोगशालाएं, यह सब सिर्फ संपन्न वगरे, अगड़ी जातियों से आए पुरु षों के लिए ही रहेंगे? जरूरी यह है कि मुख्यधारा के निजी संस्थानों में पिछड़े तबकों के लिए दरवाजे खोले जाएं. तालीम सस्ती और सुगम हो कि हर कोई योग्यता मुताबिक इसका फायदा उठा सके. यह जरूरी नहीं है कि व्यावहारिक तालीम हमेशा अंग्रेजी में ही हो. चीन-जापान और दीगर मुल्कों की तर्ज पर हिन्दुस्तानी जुबानों में तकनीकी साहित्य लिखने को बढ़ावा दिया जाए, ताकि पिछड़े तबके से आए युवाओं को तालीम हासिल करने में दिक्कत न हो.
| Tweet |