नवरात्र : शक्तिअर्जन का फलदायी साधनाकाल

Last Updated 28 Mar 2017 04:52:45 AM IST

हिन्दू दर्शन में ‘नवरात्र’ को सर्वाधिक फलदायी साधनाकाल माना जाता है. इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान, शक्ति/देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है.


नवरात्र : शक्तिअर्जन का फलदायी साधनाकाल

आध्यात्मिक विभूतियों की मान्यता है कि इस समय वायुमंडल में दैवीय शक्तियों के स्पंदन अत्यधिक सक्रिय होते हैं और वे सुपात्रों को साधना के अनुदान बांटने को तत्पर रहती हैं; इन नौ दिनों में सच्चे हृदय से नियम संयम के साथ की गई छोटी सी साधना चमत्कारी नतीजे देती है.

प्रस्तुत चैत्र नवरात्र काल इस कारण और भी विशिष्ट है क्योंकि इसके साथ हमारे भारतीय नववर्ष का भी शुभारम्भ होता है. हिन्दू धर्म में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वयंसिद्ध अमृत तिथि माना गया है. यानी वषर्भर का सबसे उत्तम दिन. सृष्टि रचयिता ब्रह्मा ने धरती पर जीवों की रचना के लिए इसी शुभ दिन का चयन किया और एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन समूचे जीव जगत की रचना की थी. यही नहीं, देश में विक्रमी व शक संवत का शुभारम्भ भी चैत्र प्रतिपदा की तिथि को ही हुआ.

भले ही, हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवी सन् से चलने और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण तमाम लोग नवसंवत्सर की महत्ता और तिथि-मासों की कालगणना की भारतीय पद्धति से अनजान हों फिर भी देश के सनातनधर्मी हिन्दू परिवार अपने सांस्कृतिक पर्व-उत्सवों, जन्म-मुण्डन, विवाह संस्कार व श्राद्ध-तर्पण आदि विक्रमी संवत के उसी भारतीय पांचांग के अनुसार करते हैं, जिसकी रचना महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने चैत्र प्रतिपदा के दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए की थी.

इस कालगणना के आधार पर दिन-रात, सप्ताह, पखवारा, महीने, साल और ऋतुओं का निर्धारण किया और 12 महीनों और छह ऋतुओं के पूरे एक चक्र यानी पूरे वर्ष की अवधि को ‘संवत्सर’ का नाम दिया. खास बात यह है कि यह कालगणना युगों बाद भी पूरी तरह सटीक साबित हो रही है. चेतना के क्षेत्र में सुसंस्कारिता के शुभारम्भ के दृष्टिगत भारतीय तत्ववेत्ताओं ने नवरात्र को अत्यधिक महत्व इसलिए दिया है क्योंकि निर्मल आनन्द के पर्याय में यह देवपर्व लोकजीवन को देवजीवन की ओर उन्मुख करता है.

आत्मसाधना की इस पुण्य बेला का लाभ उठाकर हम अपनी जीवनीशक्ति को जगाकर दुष्प्रवृतियों से मोर्चा ले सकते हैं. सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह भी इन दिनों तेजी से उभरते व मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं. नौ दिनों की इस विशेष अवधि में जब वातावरण में परोक्ष रूप से देवी शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते रहते हैं, छोटी सी संकल्पित साधना से मन में शुभ विचारों व शरीर में शक्ति का नव जागरण किया जा सकता है. हमारे यहां शक्ति को देवी के रूप में पूजने का तत्वदर्शन अत्यंत प्रेरक व शिक्षाप्रद है.

भारतीय संस्कृति में नारी के सृजनात्मक व मातृ सत्तात्मक व दिव्य स्वरूप को प्रतिष्ठित करने के लिए मार्कण्डेय ऋषि ने देवी भागवत पुराण में ‘दुर्गा सप्तशती’ प्रसंग में अलंकारिक भाषा शैली में विविध रोचक कथा प्रसंगों की संकल्पना की है. देवी भागवत के भगवती दुर्गा की अभ्यर्थना पुरुषार्थ साधिका देवी के रूप में की गई है. सप्तशती के 13 अध्यायों में इन्हीं महाशक्ति के द्वारा आसुरी शक्तियों के विनाश की कथा वर्णित है. 

‘दुर्गा सप्तशती’ में उल्लेख मिलता है कि देवासुर संग्राम में असुरों से पराजित होकर देवता गण अपनी रक्षा का उपाय पूछने सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की शरण में गए. तब उनकी प्रार्थना पर ब्रह्मा जी ने विष्णु, शिव व अन्य देवताओं के साथ मिलकर आसन्न संकट से मुक्ति दिलाने के लिए मां आदि शक्ति की स्तुति की. उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती महामाया ने उन्हें दर्शन दिए और असुरों से रक्षा के लिए अभयदान दिया. मार्कण्डेय ऋषि ने इस समूची कथा को रोचक अलंकारिक भाषा में वर्णित किया है.

त्रिदेवों ने अपनी तपबल की जिस तेजोमय नारीशक्ति को प्रकट किया और समस्त देवगणों ने अपने अमोघ अस्त्र उन तेज स्वरूपा महाशक्ति देवी दुर्गा को प्रदान किए, उन्हीं महाशक्ति दुर्गा ने पाश्विक प्रवृत्तियों के प्रतीक महिषासुर, उसके सहायकों मधु-कैटभ, चण्ड-मुण्ड, शुम्भ-निशुम्भ, धूम्र लोचन व रक्तबीज आदि असुर सेनानियों के साथ नाश कर देवों को निर्भय किया.

इस कथा के पीछे यह दिव्य तत्व दर्शन निहित है कि जब-जब समाज में पाशविक प्रवृत्तियां सिर उठाती हैं तब-तब संसार में हाहाकार मच जाता है. देवी दुर्गा दुर्गति नाशिनी हैं. समस्त दुखों का नाश करने वाली हैं. दुर्गा शब्द का यही निहितार्थ है. ‘नवरात्र’ का पुण्य फलदायी साधनाकाल हमें यह अवसर देता है कि हमें अपने भीतर की सद्प्रवृत्तियों को जगाकर दुष्प्रवृत्तियों को नष्ट कर दें.



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