मुद्दा : डूटा का मूल्यांकन विरोध जरूरी
संसद मार्च, आम सभा और हर लोकतांत्रिक तरीके से दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ एक हफ्ते से परीक्षा मूल्यांकन का बहिष्कार कर रहा है.
मुद्दा : डूटा का मूल्यांकन विरोध जरूरी |
नागरिक समाज और आम विद्यार्थी शिक्षकों के बहिष्कार, हड़ताल और संसद मार्च को गैर वाजिब मानते होंगे. कुछ लोगों ने सोशल मीडिया में यहां तक कहा है कि शिक्षकों के इस कदम से छात्रों का नुकसान होगा. जब परिणाम देर से आने की स्थिति में वे अगले सत्र में दाखिला नहीं ले पाएंगे और उनका एक साल खराब होगा. सरकार और समाज दोनों को यह समझना चाहिए कि शिक्षक इन दोनों के बीच की कड़ी है, जो सरकार को समाज के विषय में और समाज को सरकार के विषय में अवगत कराते हैं. यही जानकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीवन रेखा का भी काम करती है.
दुर्भाग्य यह है कि आज यही जीवनरेखा अपने जीवन और जीविका दोनों के लिए संघर्ष हेतु सड़क पर है. निश्चित रूप से यह आम स्थिति नहीं है और न ही यह विरोध केवल भाजपा नेतृत्व वाली सरकार का है. आज कोई भी दल वाली सरकार अगर ऐसी नौकरियां खाने और शिक्षा की स्थिति दयनीय करने वाली नीति लाती तो भी इसका इतना ही पुरजोर विरोध होता. आज एचआरडी शिक्षक संगठनों से बात करना चाहता है, यूजीसी निर्देश देना चाहता है. यह तत्परता कहां थी, जब गजट नोटिफिकेशन हो रहा था जो बिना एचआरडी की सहमति के संभव नहीं है. आज शिक्षकों का विरोध हर दृष्टि न केवल जायज बल्कि जरूरी भी. जब भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भटकाव की स्थिति उत्पन्न हुई है. उसके दो कारण रहे हैं, पहला ट्रेड यूनियन का खात्मा और दूसरा विश्वविद्यालय पर नियंत्रण.
भूमंडलीकरण के दौर में देश में सेज जैसी व्यवस्था आने के बाद मजदूर संगठनों की स्थिति क्या है, यह किसी से छिपी नहीं है. क्या बंगाल, क्या केरल या महाराष्ट्र सब जगह स्थिति एक समान है. अब मोदी सरकार विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा को टारगेट कर रही है, जिससे लोकतंत्र में असहमति और आलोचना पर लगाम लगाया जा सके. ऐसी स्थिति में उच्चशिक्षा के दृष्टिकोण से देश की वस्तु स्थिति को भी समझने की जरूरत है. आज भी इस देश का मध्यवर्ग जिसकी आबादी का प्रतिशत सबसे ज्यादा है, उच्चशिक्षा में आने के लिए राज्य-पोषित सरकारी विश्वविद्यालय पर ही निर्भर करती है.
अशोका, शिव नादर, शरदा और अमेटी जैसे निजी विश्वविद्यालयों की फीस 95 फीसद उच्चशिक्षा में आ रहे छात्रों के बूते की बाहर की बात है. यकीन न हो तो दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज और किसी भी निजी विश्वविद्यालय की फीस का तुलनात्मक अध्ययन कर लीजिए. एक तो काफी अरसे बाद भारत का ग्रास एनरॉलमेंट रेशियो अब जाकर 20 फीसद का आंकड़ा पार कर सका है. जो अभी भी अंतरराष्ट्रीय मानकों से काफी कम है, अगर विकसित देशों से तुलना करें तो वैसी स्थिति में शिक्षा का बजट बढ़ाने के बजाए कम करना, शिक्षकों का वर्कलोड बढ़ाकर नौकरियां कम करना, शिक्षक-छात्र अनुपात को बिगाड़ कर यूजीसी संशोधन न केवल शिक्षा व्यवस्था को खराब करने पर आमादा है, बल्कि जो गरीब फीस नहीं दे सकते, उन्हें यह संशोधन कॉलेज का मुंह तक नहीं देखने देगा. हममें से कितने अपने बच्चों को अशोका या अमेटी विश्वविद्यालय भेज सकते हैं.
ये कैसा गुणात्मक सुधार है और कैसी लोकतांत्रिक सरकार जो तीन चौथाई आबादी को कॉलेज परिसर में एंट्री नहीं करने देना चाहती है. क्या अब सबका साथ सबका विकास के साथ-साथ सबको समान शिक्षा भी चुनावी जुमला ही तो नहीं हो गया. जिस कौशल भारत की बात हम करना चाहते हैं, क्या वो फिटर, इलेक्ट्रीशियन और पलम्बरों तक ही सीमित रहेगा या ज्ञान-विज्ञान और शोध के क्षेत्र में देश को आगे ले जाएगा! बिना शोध और उच्चशिक्षा के कोई भी अर्थव्यवस्था न तो उन्नत हो सकती है और न ही कुशल चाहे; जितना मर्जी कौशल पैदा कर ले. ऐसे में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों के प्रदशर्न को गंभीरता से लेने की जरूरत है.
डूटा विद्यार्थियों का नुकसान नहीं होने देना चाहती. इसलिए आज जो कुछ भी करना है, वह सरकार खासकर एचआरडी और यूजीसी के जिम्मे है. डूटा नागरिक समाज के संगठनों समेत छात्र-संगठनों को भी शामिल कर रही है. इस लड़ाई का दायरा बड़ा है. वैसी स्थिति में उम्मीद है समाज शिक्षकों को संदेह की दृष्टि से नहीं देखेगा और ऐसा विश्वास है कि सरकार भारत को ज्ञान की महाशक्ति बनाने के उद्देश्य से शिक्षकों की सहभागिता को देखते हुए जल्द ही कोई उचित फैसला लेगी.
| Tweet |