कश्मीरी पंडितों की वापसी रोकने की साजिश
अब जबकि जम्मू कश्मीर में विधानसभा के चुनाव निकट आ रहे हैं, वहां राजनीतिक दलों के लिए साम्प्रदायिकता के दानव को जगाना आवश्यक हो गया है.
कश्मीरी पंडितों की वापसी रोकने की साजिश |
महीनों की शांति के बाद अचानक कश्मीर घाटी में मामूली बातों पर बड़े साम्प्रदायिक टकरावों का सिलसिला इस बात का संकेत है कि चुनाव आने तक घाटी अब शायद ही शांति का सुख भोग सकेगी. कौसरनाग की धार्मिक यात्रा को लेकर अगर सैयद अली शाह गिलानी ने आंदोलन चलाने की घोषणा की तो मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के लिए कोई चारा नहीं था कि इस यात्रा पर प्रतिबंध लगा कर वे भी अपनी वफादारी व्यक्त करें.
उन्होंने तर्क दिया है कि इस पहाड़ी क्षेत्र की तीर्थ यात्रा के कारण पर्यावरण पर दुष्प्रभाव का खतरा है. साथ ही उन का कहना है कि कौसरनाग पर्यटन स्थल है न कि यात्रा स्थल. सवाल है कि साल के छह महीने वहां हजारों सैलानियों के जाने से पर्यावरण पर असर नहीं पड़ता लेकिन अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए साल में एक बार कुछ सौ हिदुओं की पूजा करने से वहां माहौल बिगड़ जाएगा. इस तर्क को पचाना किसी के लिए भी मुश्किल है.
कश्मीरी पंडित नेताओं को इसमें ऐसी योजनाबद्ध कोशिश दिखाई देती है जिसमें कश्मीरी विस्थापितों के पुनर्वास को रोका जाए और कश्मीर के भारत के साथ अधिक समन्वय स्थापित करने को प्रयासों को विफल किया जा सके. इसी के लिए एक धार्मिक उन्माद पैदा करने की योजना रची गई है. इसके लिए वह उन श्रृंखलाबद्ध घटनाओं की ओर इशारा करते हैं जो पिछले कुछ दिनों के भीतर हुई.
पहले अमरनाथ यात्रा के प्रमुख पड़ाव बालतल में मामूली बात पर मारपीट और आगजनी की गई और कई लंगर आग के हवाले कर दिये गए. इससे कुछ समय के लिए यात्रा बाधित हो गई. फिर दक्षिण कश्मीर में मार्तंड मंदिर के पास मटन के तीर्थराज मंदिर की भूमि पर अधिकार करने का प्रयास हुआ और अब कौसरनाग को ही मुस्लिम धार्मिक स्थल बता कर हिंदुओं के लिए पराया बना दिया गया. ये सभी बातें आपस में जुड़ी हुई हैं और इसकी पुष्टि स्वयं अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने भी अपने बयान में की है.
उनका कहना है कि पुराने जमाने में अमरनाथ यात्रा केवल पंद्रह दिन की होती थी और कुछ हजार कश्मीरी पंडित ही उसमें शामिल होते थे लेकिन अब इसका विस्तार हो गया है. इसका अब एक श्राइनबोर्ड भी है जिसके पास काफी जमीन भी है. अब कौसरनाग की यात्रा शुरू की गई है जिसका कोई वजूद नहीं था. इन बातों का यहां के हालात पर फर्क तो पड़ता ही है.
दरअसल अमरनाथ यात्रा आजादी से पहले भी बड़ी संख्या में कश्मीर से बाहर के भक्तों को आकर्षित करती थी. यह केवल कश्मीरी पंडितों की यात्रा कभी नहीं थी. दशनामी अखाड़ा जिसके नेतृत्व में यात्रा चला करती थी साधु-संन्यासियों का अखिल भारतीय संगठन ही है. कौसरनाग भी पारंपरिक यात्रा थी जो अमरनाथ यात्रा से पहले होती रही है. गिलानी के बयान के तथ्यों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं.
इसमें महत्वपूर्ण है इस बात की पुष्टि कि जो कुछ हो रहा है, वह अनायास नहीं हुआ है उसकी एक योजना है और वह अनायास ही बंद भी नहीं होगा. यह आंदोलन ऐसे मौके पर चलाया गया है जब कश्मीर घाटी में सक्रिय किसी भी राजनीतिक दल का इससे अछूता रहना संभव नहीं रहा है. नेशनल कांफ्रेस- जिसकी सरकार ने इस यात्रा पर पांबंदी लगा दी है, भी खुले आम इसके पक्ष में नहीं आना चाहती. कांग्रेस दिल्ली या जम्मू में जो भी कहे पर कश्मीर में चुप रहना ही मुनासिब समझती है. पीडीपी का भी यही हाल है.
आंदोलन कश्मीर को इस्लामी देश के रूप में पहचान के लिए चलाया जा रहा है. जो पोस्टर आंदोलनकारियों की ओर से जारी किया गया है, उसमें इस बात को साफ तौर पर व्यक्त किया गया है. यह आंदोलन दरअसल तहरीक-ए-पीरवार अर्थात पीरों की वाटिका के बचाव का का आंदोलन है. पीर वार उस प्रचलित मुहावरे के विकल्प के रूप में गढ़ा गया है जिसमें कश्मीर को ऋषिवार यानी ऋषियों की वाटिका कहा जाता था. प्रसिद्ध कवि संत शेख नूरुद्दीन भी नुद ऋषि ही कहलाते थे. पोस्टर के शीर्ष पर ही बताया गया है कि कौसरनाग यात्रा भारतीय एजेंसियों की करतूत है. इसे भारतीय षडयंत्र मानते हुए आरोप लगाया गया है कि भारत सरकार कश्मीर में अपनी चौकियां बनाना चाहती है. पंडितों को अलग राज्य यानी पनुन कश्मीर देना चाहती है और इस्राइल के एक पूर्व विदेश मंत्री की सलाह पर कश्मीर में साम्प्रदायिक अनुपात बदलना चाहती है.
इसलिए लोगों से कहा गया है कि कौसर नाग को बचाना कश्मीर को बचाना होगा.
पिछले कई सालों से ही कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के तीर्थों की सुरक्षा की मांग उठती रही है. इसके लिए एक श्राइन बिल भी बना जो मतभेदों के कारण अब तक पारित नहीं हुआ है. उद्देश्य था विस्थापित कश्मीरी पंडितों के तीथोर्ं, मंदिरों औेर धार्मिक स्थलों की सुरक्षा प्रबंध का दायिव सरकार ले और इन स्थलों का प्रबंधन कश्मीरी हिंदू समाज को ही दिया जाए. उसी सिलसिले में उन तीर्थस्थलों की भी पहचान आरंभ हो गई थी जो पिछले दो दशक से आरक्षित पड़े हैं या जिन पर दूसरों ने कब्जा किया हुआ है. इनमें एक तीर्थस्थल नियंत्रण रेखा के पार भी है.
कौसर नाग में पूजा बरसों से बंद थी जिस का कारण भी स्पष्ट है. इसे फिर से शुरू करने के प्रयास में ही कश्मीरी पंडितों ने छेाटी सी यात्रा का आयोजन किया था लेकिन यह ऐसे अवसर पर हुआ जब देश में नई सरकार चुन कर आई है औेर जिसे अलगाववादी संगठन अपने प्रतिकूल मानते हैं. साथ ही सरकार ने अनुच्छेद 370 जैसे कुछ ऐसे मुद्दे भी उठाए हैं जिनसे अलगावादी ही नहीं, कुछ राजनीतिक दल भी आशंकित है. स्वाभाविक है कि कौसर नाग के मामले को तूल देकर घाटी में ऐसा माहौल बनाया जा सकता है कि केंद्र को अलगावादी संगठनों का हौवा दिखा राजनीतिक प्रक्रिया पलटी जा सके.
लेकिन इस मामले में नेशनल कांफ्रेस औेर कांग्रेस जैसे दलों के लिए आगे कुआं तो पीछे खाई का सा हाल हो गया है. अगर घाटी में सांप्रदायिक माहौल बनाया गया तो उस का सीधा असर जम्मू पर भी पड़ेगा. ऐसे माहौल में कथित धर्मनिरपेक्ष दलों को जम्मू क्षेत्र के हिंदू बहुल इलाकों से समर्थन मिलने की आशा नहीं है अत: घाटी के किसी सांप्रदायिक आदोलन का चुपचाप समर्थन कर अपने समर्थन आधार को तो बचाने की उम्मीद तो की ही जा सकती है लेकिन यह राजनीतिक खेल इतना आसान नहीं है. कश्मीर में सांप्रदायिक राजनीति के बीच भी प्रतिस्पर्धा रहती है.
अलगावाद और सांप्रदायिकता के मुकाबले कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस का पलड़ा सबसे नीचे ही रहेगा. इन दोनों दलों को अलगावादी अब भी संदेह की नजर से देखते हैं. अगर उमर अब्दुल्ला और गुलाम नबी आजाद जैसे नेता अपनी अपनी पार्टियों को अलगावादियों के दबाव में बहने दें तो चुनावों के नतीजे शायद उससे भिन्न न निकले जो लोकसभा चुनावों के निकले थे और उमर सत्ता न बचा पाएं. यह स्थिति महबूबा मुफ्ती केलिए सबसे अनुकूल लगती है. लोकसभा चुनावों जैसे नतीजे उनके दोनों प्रतिस्पर्धियों को मुकाबले से बाहर कर सकते हैं.
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