मौसम का बिगड़ता मिजाज

Last Updated 28 Jan 2012 01:05:59 AM IST

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन हो रहा है. पर्यावरण बिगड़ रहा है.


जापान में आई सूनामी, बैंकाक में बाढ़, अमेरिका में तूफान, बर्फबारी और अब भारत सहित पूरे एशिया में कड़ाके की ठंड इसके उदाहरण हैं. एशियाई देशों पर बदलते मौसम का खतरा गहराता जा रहा है. बेमौसम बरसात और भारी ठंड ने पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है. वैज्ञानिकों के अनुसार  बड़ी मात्रा में हिम प्रखंड दक्षिणी ध्रुव की ओर से धीरे-धीरे सरक रहा है.

फलस्वरूप पूरे वि का तापमान गिर रहा है और उत्तरी गोलार्ध में बर्फ का जमाव अधिक हो रहा है. इस तरह दक्षिणी एवं उत्तरी ध्रुव प्रदेशों के तापक्रम में अप्रत्याशित रूप से हुआ हेर-फेर सारे वि के मौसम को प्रभावित कर रहा है. वर्ल्ड क्लाइमेट कांफ्रेस डिक्लेरेशन एंड सपोर्टिंग डाक्युमेंट्स के अनुसार प्रौद्योगिकी के व्यापक विस्तार के कारण हवा में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ रही है.

अपने यहां मकर संक्रांति बीतने के बाद भी पूरा उत्तर भारत ठंड की चपेट में है. इसका कारण ला-नीना का सक्रिय होना और पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार बर्फवारी बताया जा रहा है. पहाड़ों पर हो रही बर्फबारी का असर मैदानी इलाकों में भी है. बर्फीली हवाओं की गति छह से दस किमी तक है. उधर ला नीना इफेक्ट भी अपना असर दिखा रहा है. मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार ला-नीना का असर जब भी आता है, उस साल ठंड अधिक पड़ती है. इसका असर दो से चार साल के अंतराल में अधिक सक्रिय होता है. जिसके कारण ठंड बढ़ती है.

मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक प्रशांत महासागर में ला-नीना की स्थिति बनने की वजह से ही अपने यहां कड़ाके ठंड पड़ रही है. प्रशांत महासागर में सूरज अगर किसी वजह से भूमध्यरेखा के आसपास के इलाके के पानी को गर्म नहीं कर पाता है और पानी का तापमान औसत 27 डिग्री से नीचे रहता है, तो ऐसी स्थिति में एल-नीनो नहीं बन पाता. जिसे ला-नीना कहते हैं. महासागर में एल-नीनो का न बनना मौसम की बड़ी चेतावनी समझा जाता है. एल-नीनो के न बनने पर सामने आने वाली ला-नीना की स्थिति मौसम की कई असामान्य हलचलों को जन्म देती है.

एल-नीनो की स्थिति में मानसून असामान्य हो जाता है और पश्चिमी विक्षोभ की घटनाएं बढ़ जाती हैं. अगर ऐसा सर्दियों में होता है तो पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी बढ़ जाती है और मैदानी इलाकों में असामान्य ठंड पड़ती है. वहीं गर्मियों में ला-नीना की स्थिति बनने पर भारी बारिश हो सकती है. मौसम विशेषज्ञों के मुताबिक इस बार की कड़ाके की ठंड की वजह पश्चिमी विक्षोभ है. पश्चिमी विक्षोभ, पश्चिम के ठंडे-बर्फीले इलाकों से उठने वाली उन सर्द हवाओं को कहते हैं जो कैस्पियन सागर के उस पार से उठकर पूरब में हमारे देश की ओर आती हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक प्रशांत महासागर के ला-नीना ने इस बार पश्चिमी विक्षोभ को असामान्य कर दिया है, जिससे कड़ाके की ठंड पड़ रही है.

ला-नीना और अगले दो महीनों में भारत में गिरते पारे की संभावना के बीच सीधा रिश्ता है. पुणो स्थित मौसम विभाग के निदेशक डीएस पाई के मुताबिक, ला-नीना और ठंड के बीच संबंध बहुत सामान्य नहीं है, लेकिन ला-नीना की वजह से ठंड बढ़ने के मामले पहले भी सामने आ चुके हैं. इस बार यह स्थिति मार्च तक रहने वाली बतायी जा रही है. आगामी दिनों में न्यूनतम तापमान में और गिरावट दर्ज की गई तो फसलें  प्रभावित हो सकती हैं.

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण सरंक्षण को लेकर चिंता जाहिर हो रही है परन्तु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणति होती दिखाई नहीं दे रही है. जिस तरह क्लाइमेट चेंज दुनिया में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, उसके नजीते में आने वाले समय जरूरी चीजें इतनी दुर्लभ हो जाएंगी कि देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे. यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है. अब जलवायु चक्र का सीधा खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है. किसान तय नहीं कर पा रहे हैं कि कब बुवाई करे और कब फसल काटें.

दुनिया भर में मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ है.  औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणामस्वरूप दुनिया भर के लोग प्रकति का यह कहर झेलने को मजबूर हैं. पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के मुद्दे पर डरबन में आयोजित सम्मेलन में 17वीं बार दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन पर चर्चा के लिए जुटे थे. मुद्दा वही था कि कैसे जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम किया जाए. पर परिणाम जहां के तहां. 20 साल पहले 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन अन क्लाइमेट चेंज बना था.

तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई, लेकिन अब तक हम इन खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है. जो भी निर्णय हुए, केवल सैद्धांतिक स्तर पर ही टिके हैं. उनका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है. अनुसंधानकत्र्ताओं ने आगाह किया है कि वायु में बढ़ती कार्बन डाईअक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए अन्यथा विनाश तय है.

वास्तव में जनसख्या वृद्धि ही पर्यावरण असंतुलन के लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि हमारी उपभोगवादी संस्कृति प्रमुख जिम्मेदार है. वास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है वह विनाश की ओर बढ़ता कदम है. क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी को विकास माना जा सकता है? आज आदमी पैसे के दम पर हैसियत बढ़ा-चढा़कर दिखाने की कोशिश में जल, जंगल जमीन और ऊर्जा जैसे संसाधनो का बेजा इस्तेमाल कर रहा है. 

निष्कर्ष यही है कि देश में भीषण ठंड हो या भयंकर गर्मी- ये सब पर्यावरण असंतुलन के कारण है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं. समस्या हमने पैदा की है तो समाधान भी हमे ही तलाशना पड़ेगा नहीं तो पर्यावरण असंतुलन के हर झटके को झेलने को तैयार रहना होगा. चाहे ला नीना  हो या अल नीना, सबका प्रभाव हमें झेलना ही पड़ेगा. इसलिए समय है कि हम लोग कथित विकास की बेहोशी से जग जाएं और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम करें.

शशांक द्विवेदी
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment