गरीबी पर प्रयोग
हाल में गरीबी पर किया गया एक प्रयोग अपने आप में विशिष्ट और नेताओ, नौकरशाहों के सामने नजीर पेश करने वाला है.
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अमेरिका की दो नामी शिक्षण संस्थाओं से पढ़कर आए और नंदन नीलकेणि के नेतृत्व में यूनीक आइडेंटिफिकेशन ऑथरिटी से जुड़कर काम कर रहे तुषार वशिष्ठ और मैथ्यू चेरियन भारत में योजना आयोग द्वारा पेश की गई गरीबी की परिभाषा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 32 रुपये रोजाना के खर्च में कुछ दिन गुजारने का फैसला किया.
सरकार की शहर में 32 और गांव में 26 रुपए वाली गरीबी रेखा निर्धारण के प्रसंग में इन दो शख्सियतों का अद्वितीय प्रयोग पांच हफ्तों तक चला. अपनी जरूरतों में कटौती के बाद पहले हफ्ते में ये इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शहर में डेढ़ सौ रुपए प्रतिदिन से कम में एक व्यक्ति जीवन गुजार ही नहीं सकता. दो हफ्तों के लिए खर्चो में और कटौती की तो भी खर्चा सौ रुपए प्रतिदिन रहा. निष्कर्ष निकला कि सौ रुपए रोज पर जीवन गुजारना बड़ी मजबूरी भरा काम है. और अगले दो हफ्तों के लिए इन्होंने सभी खर्चो में कटौती कर 32 रुपयों में जिंदा रहकर दिखाया. निष्कर्ष यह कि शहर में 32 रुपए में किसी तरह सिर्फ जिंदा रहा जा सकता है.
पांच हफ्तों के अपने प्रयोग में इन्होंने यह जानने की कोशिश भी की कि तमाम गरीब लोग इससे भी कम आमदनी में कैसे जिंदा रहते होंगे? रिपोर्ट का अंतिम निष्कर्ष यह है कि इंसान घनघोर गरीबी में भी जीवित तो रह सकता है, पर उसकी शारीरिक और मानसिक ताकत इतनी कम हो जाती है कि गरीबी से निजात पाने के बारे में वह सोच भी नहीं पाता. अपने अनुभव के आधार पर तुषार और मैथ्यू का मानना है कि शहरों में गरीबी की रेखा जहां 120 से 150 रुपए रोज की आय पर निर्धारित होनी चाहिए, वहीं गांवों में 90 से 110 रुपए के बीच.
काश हमारे नीति नियामक भी ऐसा प्रयोग करते तो समझ पाते कि गरीबी क्या है? व्यावहारिक तो यह होगा कि रिपोर्ट बनाने वाले योजना आयोग के सभी सदस्यों को 965 रुपये देकर कहा जाये कि इस राशि में वे एक महीना गुजर-बसर करके दिखाएं. तब समझ आएगा कि रिपोर्ट बनाने और वास्तविक जीवन जीने में कितना फर्क है. गरीबी पर किया गया उक्त प्रयोग उन लोगों के लिए नजीर है जो पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर गरीबों पर रिपोर्ट बनाते हैं और गरीबी पर अध्ययन के लिए कई देशों की यात्राएं कर करोड़ों खर्च करते हैं.
आज हमारी क्षमता का लोहा दुनिया मान रही है लेकिन इतनी तरक्की के बावजूद हम गरीब राष्ट्रों में शुमार हैं. गरीबी देश के लिए अभिशाप है इसलिए राष्ट्रहित में इसका उन्मूलन जरूरी है. आज जीडीपी के आंकड़े कागजों तक ही सीमित हैं. असल में 40-50 रुपये रोजाना कमाने वाले लोग झुग्गी झोपड़ियों में बदहाली का जीवन जीने को अभिशप्त हैं.
देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है इसलिए इस गंभीर समस्या की तरफ सरकार का ध्यान होना चाहिए. हालांकि विश्व बैंक जैसी संस्थाएं गरीबी दूर करने के लिए काफी मदद करते हैं लेकिन वह भ्रष्टाचार के कारण गरीबों तक नहीं पहुंच पाती. सरकार को भ्रष्टाचार के विरुद्ध कमर कसनी ही होगी तभी गरीबी का उन्मूलन होगा. समर्थ लोगों का भी फर्ज है कि अपनी कमाई का छोटा सा हिस्सा गरीबों के उत्थान में लगाएं. तभी देश सही मायने में विकसित कहलाएगा.
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