पर्यावरण मित्र गिद्ध की चिंता

Last Updated 18 Aug 2011 12:25:09 AM IST

हमें इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन नेचर (आईयूसीएन) का एहसानमंद होना चाहिए जिसने अपनी रेड लिस्ट के जरिये बताया है कि हमारे यहां पक्षियों की 1,228 में से करीब 82 प्रजातियां खत्म हो गई है.


और अनेक खत्म होने के कगार पर हैं. पक्षी संरक्षण के नाम पर डाक विभाग ने कुछ समय पहले पक्षी दिवस के मौके पर गौरेया पर डाक टिकट जारी कर रस्म निभायी. उत्तर प्रदेश में सारसों की गिनती के बाद अब वहां गिद्ध की गणना कराने का मन बना है.

पक्षी विशेषज्ञों के मुताबिक प्रदेश में कुल नौ प्रजातियों के गिद्ध पाये जाते हैं. सभी की अलग पहचान और खासियतों के चलते इनकी गणना प्रजातिवार ही होनी है. विशेषज्ञों के लिए सभी प्रजातियों के गिद्धों को इलाकाई आधार पर एक साथ पहचानना, छांटना और वर्गवार गिनती करना बड़ी चुनौती है. खबर है कि राज्य में अभी इनकी तादाद करीब 1,770 है. मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी की 1995 की सर्वे  रिपोर्ट के मुताबिक नेपाल और पाकिस्तान में मरे हुए गिद्धों के परीक्षण के दौरान दर्द निवारक दवा डॉयक्लोफेनेक को गिद्धों के गुर्दे फेल होने का कारण माना गया जिससे उनकी मौत हो गई. नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ ने भी सालों पहले इस दवा पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी. बाजार में विकल्प के तौर पर मैलोक्सिकैम की मौजूदगी के कारण सरकार ने जानवरों के इलाज में डॉयक्लोफेनेक पर 2006 में रोक लगा दी लेकिन मैलोक्सिकैम मंहगा होने के कारण चोरी-छिपे डॉयक्लोफेनेक की उपलब्धता बाजार में बनी हुई है.

पक्षी विशेषज्ञों के मुताबिक गिद्ध मंदबुद्धि प्राणी है. और झुंड में रहना पसंद करते हैं. यही कारण है कि इनकी मौत सामूहिक होती है. इसके अब तक दो कारण दिखे हैं. पालतू जानवरों को जीते जी लगातार दी जाने वाली दवाइयां और चारे में मिले घातक रसायनों से मौत के बाद सड़ने पर वे और ज्यादा जहरीले और संक्रामक हो जाते हैं. लिहाजा, गिद्ध सामूहिक रूप में सड़ा-गला मांस खाकर जान गंवा बैठते हैं. ट्रेनों की चपेट में आये जानवरों को खाते समय भी ये रेल लाइनों पर झुंड में ही बैठते हैं और तकनीकी मजबूरी और तेज रफ्तार के चलते ट्रेन इन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ जाती है.

हाथियों की तरह इनके रिहाइशी इलाकों में भी रेलवे की ओर से ड्राइवरों को होशियारी और धीमी रफ्तार से ट्रेन चलाने की हिदायते हैं लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. बीते साल 2010 के आखिरी महीनों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के नेपाल से सटे इलाके में करीब 30 गिद्धों के एक झुंड की ऐसे ही एक हादसे में सामूहिक मौत हो गयी. विशेषज्ञ कयास लगाते रह गये कि वे भारत का माना जाए या नेपाल का. रेल लाइनों की गैर मौजूदगी और पालतू जानवर कम खाने को मिलना नेपाल में इनकी अच्छी संख्या का बड़ा कारण है. इसका सबूत यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से सटी सीमा पार नेपाल में इनके बहुतेरे बसेरे हैं. जब तब सीमा पार से उड़ते भारत आने वाले ये गिद्ध देश में अपनी बड़ी तादाद का भ्रम फैला जाते हैं.

गिद्धों का एक झुंड मरी हुई भैंस को महज एक घंटे में चट कर जाता है. इससे वातावरण की सफाई के अलावा संक्रामक बीमारियों पर भी नियंत्रण होता हैं. इनकी स्वाभाविक आयु मनुष्य के तकरीबन बराबर और दूसरे पक्षियों के मुकाबले 50-60 वर्ष होती है. वन्य जीव संरक्षण कानून 1972 के संरक्षण मानकों में इन्हें लुप्त जीवों की श्रेणी में रखा गया है. हालांकि, देश भर में प्रवासी पक्षियों की तरह इन्हें खाने, पालने, दवाइयां बनाने, खाल, पंख या तस्करी आदि के लिए मारे जाने मामले तो नहीं मिलते, फिर भी इन्हें अस्तित्व-संकट से उबारना विशेषज्ञों के लिये बड़ी चुनौती है.

पद्माकर त्रिपाठी
लेखक


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