बचाइए उत्तराखंड के पर्यावरण को
हाल में उत्तराखंड सरकार के दो फैसलों से पर्यावरण को लेकर उसकी नीति पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं.
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पहला कई नदियों में खनन की इजाजत देना और दूसरा उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने से इनकार करना. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखिरयाल ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश से भेंट कर गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित करने के निर्णय पर पुन: विचार करने की बात कही है. उनके मुताबिक उत्तराखण्ड छोटा राज्य है और यहां की 67 प्रतिशत भूमि वनाच्छादित है, जिस कारण राज्य सरकार के विकास कार्यों में वन भूमि कानून आड़े आ रहे हैं.
सब जानते हैं कि नदियों का खोदा जाना पर्यावरण की दृष्टि से विनाशकारी है. नदियों में जमीन की सतह से ऊपर जितना पानी बहता है, उससे अधिक सतह से नीचे बहता है. खासकर पहाड़ से नीचे गिर कर भाबर इलाके में नदियों का पानी एकदम नीचे चला जाता है और फिर तराई में वह ऊपर आ जाता है. इसीलिए आज से पचास-साठ साल पहले तराई में दस फीट खोदने पर ही पानी निकल आता था, जबकि भाबर में कुएं खोदना कभी भी संभव नहीं रहा.
दूसरी तरफ उत्तरकाशी से गंगोत्री की तरफ छोड़ी-बड़ी नदियों पर दर्जनों हाइड्रो प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहे हैं. इस पूरे इलाके में टूटते पहाड़ और ग्लेश्यिर पर कम होती बर्फ साफ तौर पर देखी जा सकती है. जबकि गंगोत्री से गोमुख के रास्ते पर पर्यटकों की बढ़ती तादाद से यहां गंगा की गोद कूड़े और गंदगी से भरी पड़ी है. खतरे की बात है कि ये कूड़े बायोडिग्रेडबल भी नहीं. इस कचरे में पॉलीथिन और प्लास्टिक के दूसरे सामान ज्यादा हैं जो पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक हैं. ऐसा नहीं है कि प्रशासन को इसकी जानकारी नहीं लेकिन वह भी चेतावनी और आग्रह वाले कुछ साइन बोर्ड लगाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेता है.
गंगोत्री ग्लेशियर, भागीरथी पर्वत, शिव पर्वत और रक्तवर्णा पर्वत ये सभी भागीरथी के स्रोत हैं लेकिन इन पर भी खतरा साफ दिख रहा था. इनका वजूद पूरी तरह तबाही की तरफ बढ़ रहा है. जमीन धंसने की घटनाएं यहां आम दिनों की बात हो चली है. जहां हर वक्त बर्फ की चादरें चट्टानों से ज्यादा मजबूत होती थीं, वहां अब हर जगह दरारें दूर से ही देखी जा सकती हैं.
ये दरारें कुछ दिनों की देन नहीं हैं और ये कोई मामूली बात भी नहीं है बल्कि यह पूरी दुनिया के लिए खतरे का सिग्नल है. ग्लेशियर लगातार पिघलकर अपनी जगह से हटते जा रहे हैं. जहां आज ग्लेशियर का मुहाना है साल भर बाद वह वहां नहीं होगा. बर्फ की चट्टानों में ये दरारें भी हर रोज बढ़ती जा रही हैं. आने वाले समय में जल संकट से बचने के लिए हमें गंगा और गोमुख की सुध लेनी होगी. अब हिमालय में हिमपात कम हो गया है. पौड़ी समेत उत्तराखंड के कई हिस्सों में अब बर्फ नहीं पड़ती. मसूरी में कब बर्फ पड़ती है और कब पिघल जाती है पता ही नहीं चलता.
इस समय केवल उत्तराखंड में पांच सौ से अधिक राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है. और इन सभी परियोजनाओं को उत्तराखंड सरकार की मंजूरी के बाद ही चलाया जा रहा है. शायद सरकार अभी तक इन परियोजनाओं से उत्तराखंड के ग्रामीणों के समक्ष होने वाले संकट को नहीं समझ पा रही है. इन सभी परियोजनाओं से सीधे तौर पर यहां की गरीब जनता को नुकसान हो रहा है. साथ ही पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है, वह तो अलग ही चिंता का कारण है.
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