मीडिया : बाजार, विज्ञापन और सेक्सिज्म

Last Updated 30 Jun 2024 12:51:13 PM IST

टीवी व प्रिंट मीडिया में इन दिनों आते कुछ विज्ञापनों को छोड़ दें तो अधिकांश की प्रस्तुति ‘सेक्सिस्ट’ नजर आती है जिनमें औरत अधिकाधिक बेध्य नजर आती है।


मीडिया : बाजार, विज्ञापन और सेक्सिज्म

इसे समझने के लिए हम कुछ उदाहरण देखें: एक खास ब्रांड की इलायची बेचनी होती है, वहां भी केसर फेंकने के लिए सुंदरी जरूरी होती है जो नाचती-गाती दिखती है। इसी तरह एक टूथपेस्ट बेचने के लिए एक हीरो नाचता हुआ आता है, और फिर कई लड़कों के साथ एक हीरोइन भी उसके साथ डांस करने लगती है, और वो ब्रांडेड  टूथपेस्ट दिखने लगता है।
लेकिन इन दिनों कुछ विज्ञापन बहुत ही आगे निकल गए दिखते हैं जैसे एक ब्रांड ‘कंडोम’ का विज्ञापन जिसमें लड़का लड़की के साथ दर्शकों से कहता है कि अपने पार्टनर से बात करके कंडोम तय करो..। यह विज्ञापन उस कंडोम विज्ञापन से बहुत आगे का है जो बरसों पहले एक अंग्रेजी पत्रिका में छपा था जिसमें नग्न हीरो-हीरोइन के ‘नग्न’ शरीरों पर अजगर लिपटा हुआ दिखता था। तब उसे लेकर मीडिया में बड़ा हल्ला हुआ था। लेकिन अब कंडोम के विज्ञापन किसी को नहीं हिलाते। उनको तक नहीं जो अपने को ‘स्त्रीत्ववादी’ कहते हैं और स्त्री की देह को किसी ‘उपभोग्य वस्तु’ की तरह दिखाने पर ऐतराज किया करते थे। कारण यह है कि इन दिनों बाजार की अतियों के खिलाफ कोई बंदा बोलता नहीं दिखता।
आज का बाजार ‘सेक्स संचालित’ बाजार है। वस्तुओं के साथ हमको ‘सेक्सिस्ट’ नजरिया भी बेचा जाता है। यह अपने ‘फ्री मारकेट’ की ‘सेक्सिस्ट कल्चर’ की जीत है। बहुत कम विज्ञापन होते हैं जिनमें कोई सुंदर स्त्री या हीरोइन नहीं होती। इसका कारण ‘मारकेटिंग की रणनीति’ है जो मान कर चलती है कि स्त्री अगर ‘सेल्स वूमन’ हो तो चीज अच्छी बिकती है क्योंकि चीजों को खरीदने वाले अधिकतर मर्द ही होते हैं।
अब हम कुछ नये ब्रांडेड ‘कच्छा बनियानों’ की मारकेटिंग के उदाहरण देखें: एक फिल्मी हीरो की शूटिंग का टाइम हो चुका है। सेट लगा है। वह लेट हो रहा है लेकिन वो येन केन दौड़ता-भागता किसी तरह सेट तक पहुंचता है तो वहां मौजूद लेडी बुदबुदाती है कि वो तो कभी लेट नहीं होता तो वो कहता है कि मैं हमेशा टाइम से पहुंचता हूं। अंत में लेडी कहने लगती है: ‘फिट है बॉस’! यह ‘फिट है बॉस’ यूं तो बनियान के लिए कहा जाता है लेकिन ‘फिट’ के मानी सिर्फ इतने नहीं दिखते। इसके भी ‘डबल मानी’ हैं। ऐसा ही एक विज्ञापन कुछ पहले आया करता था जो इस तरह से खुलता था : हीरो को कोई बताता है कि डालर का भाव चढ़ रहा है तो वह दौड़ लगाकर एक खास ब्रांड के बक्से को छीन लेता है। उसकी इस फिटनेस पर लेडी मुग्ध हो जाती है..। ऐसे विज्ञापनों में सामान के साथ मर्द की बॉडी पर मरती औरत भी बेची जाती है। यह  एक प्रकार का ‘निर्लज्ज सेक्सिज्म’ है।
ऐसे ही ‘गरम इनर्स’ का वो विज्ञापन याद आता है, जो इस तरह खुलता है : किसी बर्फानी हिल स्टेशन पर एक मां अपनी लड़की के साथ दिखती है, जो ठंड से ठिठुर रही है। वहां एक लड़का आता है जो अपने गरम इनर्स को उतार कर लड़की को देता है, तो वह कहती है, हां, अब ये ठंड कट जाएगी..। इसके ‘डबल मानी’ साफ हैं। लड़की जिस मुद्रा में यह सब कहती है उसमें उसकी आंखों में वासना सी नजर आती है और लड़का तक उसके इशारे समझता है..। इसी तरह एक कच्छे का विज्ञापन आता है जिसमें लड़की लड़के को देखती है। लड़का अलमारी के ऊपर रखे कुछ सामान को उतारता है। इसी प्रक्रिया में उसके कच्छे का ब्रांड लड़की को दिखने लगता है, जिसे देख लड़की की आंखों में एक ‘लस्ट’, एक ‘वासना’ सी दिखती है। इसी तरह जब लड़का अपनी बाहें ऊंची करता है, तो उसके कच्छे का खास ब्रांड दिखने लगता है, और लड़की उसके कच्छे के ब्रांड को देख खुश हो जाती है और लड़के का ध्यान खींचने के लिए जोर से नारा लगाती है। लड़की को अपने कच्छे का ब्रांड देखते देख लड़का झेंपता दिखता है।
कच्छा बनियान बेचने के क्या यही तरीके बचे हैं और क्या यही भाषा बची है कि लड़की किसी लड़के के कच्छे को ही देखे और उसके ब्रांड को देख खुश होती दिखे? ऐसे सेक्सिस्ट विज्ञापनों के बीच इन दिनों खास ब्रांड के ट्रक का वो विज्ञापन दिखता है जिसमें लड़की ड्राइवर बन ट्रक को चलाती दिखती है। यह अकेला विज्ञापन है, जिसमें औरत को उपभोग्य पदार्थ की तरह नहीं दिखाया जाता, बल्कि नये ‘प्रोफेशनल कर्मी’ की तरह दिखाया गया है। यह बताता है कि औरत को ‘सेक्सिस्ट’ रूप में दिखाए बिना भी स्त्री को ‘एम्पावर’ करने वाले अच्छे विज्ञापन बनाए जा सकते हैं।

सुधीश पचौरी


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