रामनगरी अयोध्या शुरू से बनी रही सियासत की नींव!
राम मंदिर के लिए पांच अगस्त को भूमि पूजन के दौरान प्रधानमंत्री ने मंच से भले ही राजनीतिक बातें नहीं कीं, लेकिन राम के बहाने उन्होंने बड़ा संदेश दिया। वैसे भी रामनगरी अयोध्या पहले से ही सियासत की नींव रही है।
अयोध्या (फाइल फोटो) |
अब जब नींव पूजन के बाद वहां मंदिर निर्माण शुरू होने जा रहा है तो उसका सियासी असर उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में पड़ना स्वाभाविक है।
भाजपा के चुनावी एजेंडे में कई दशकों तक मंदिर मुद्दा रहा है। इसे लेकर गाहे-बगाहे विपक्ष से उसको तगड़े कटाक्ष भी झेलने पड़े हैं। इस तरह अयोध्या का राम मंदिर आस्था और श्रद्धा के अलावा वोटों की राजनीति के लिए भी खूब जाना गया।
भाजपा ने जब-जब इस मुद्दे को उठाया तब-तब उसका ग्राफ बढ़ता रहा है। भले ही भाजपा आज यह कहे कि उसके लिए मंदिर मुद्दा देश के करोड़ों लोगों की आस्था और अस्मिता से जुड़ा है, लेकिन सच यही है कि भाजपा ने इसका चुनावी लाभ लिया और आगे भी लेना चाहेगी।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव 2022 में हैं। तब तक मंदिर का निर्माण कार्य काफी प्रगति पर रहेगा। ऐसे में भाजपा एक बार फिर इसके सहारे चुनावी वैतरणी पार करने का प्रयास करेगी। प्रधानमंत्री मोदी भी भूमि पूजन के मंच से बहुत सारे इशारे दे गए हैं। कोरोना संकट में भी जिस प्रकार से यह इवेंट अच्छी तरह से आयोजित किया गया और राम उत्सव के बहाने लोगों से घरों और देवालयों में दीपदान कराये गए, वे निश्चित ही आने वाले चुनावों के संदेश थे।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ब्रजेश शुक्ल कहते हैं कि अयोध्या सियासत में शुरू से रही है। आजादी के बाद आचार्य नरेन्द्र देव समेत कई समाजवादी विचारधारा के लोग कांग्रेस से अलग हो गये थे। आचार्य नरेन्द्र देव ने फैजाबाद की विधानसभा सीट से इस्तीफा भी दे दिया था। साल 1948 में जब उपचुनाव हुआ तो वह सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव मैदान में उतरे और कांग्रेस ने उनके खिलाफ पूर्वांचल के संत बाबा राघव दास को उतारा। इस उपचुनाव में कांग्रेस ने जमकर हिन्दू कार्ड खेला और उस समय लगे पोस्टरों में बाबा राघव दास को राम और अचार्य नरेन्द्र देव को रावण की भूमिका में दिखाया गया। राम के नाम पर बाबा राघव दास यह चुनाव जीत गये थे।
ब्रजेश शुक्ल का कहना है कि इस जीत के बाद 1949 में विवादित ढांचे में रामलला प्रकट हुए। महंत रामचन्द्र दास, निर्वाणी आखाड़ा के बाबा अभिरामदास और हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई लोगों ने कहा कि प्रकाश के साथ भगवान प्रकट हो गए हैं। प्रधानमंत्री नेहरू ने जिला प्रशासन से मूर्ति हटाने को कहा, लेकिन तत्कालीन डीएम केके नैय्यर ने मूर्ति नहीं हटायी बल्कि इस्तीफा दे दिया।
इसके बाद नैय्यर चुनाव लड़े और जीते। उनकी पत्नी चार बार सांसद बनी। साल 1986 में राजीव गांधी ने ताला खुलवा दिया। जब कांग्रेस बहुत आगे जाने लगी तो भाजपा इस मुद्दे की तरफ बड़ी तेजी से आगे बढ़ी। तभी से राम मंदिर भाजपा के ऐजेंडे में छाया रहा है। अब विपक्ष की देखें तो सपा और बसपा शांत हैं, लेकिन कांग्रेस इसे लेकर धड़े में बंटी है। ऐसे में अब यह अमृत भाजपा के हिस्से में आएगा। बाकी विष कोई नहीं पीना चाहेगा।
वरिष्ठ पत्रकार पीएन द्विवेदी ने बताया कि अयोध्या का राम मंदिर मुद्दा शुरू से ही सियासत का हिस्सा रहा है। साल 1992 में जब विवादित ढांचा गिराया गया था। उस दौरान प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। हलांकि, 1993 के चुनाव में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था और प्रदेश में माया और मुलायम की सरकार आ गयी थी। फिर भी भाजपा ने यह मुद्दा छोड़ा नहीं। उसने शुरू से इसे अपने कोर एजेंडे में शामिल रखा। वर्तमान में पांच अगस्त को मोदी ने मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन करके एक बड़ी लकीर खींच दी है। अब इसे मिटा पाना विपक्ष के लिए बड़ी टेढ़ी खीर होगी।
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