प्रधान न्यायाधीश का पद आता है आरटीआई ऐक्ट क
Last Updated 12 Jan 2010 04:03:30 PM IST
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नयी दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला
सुनाते हुए कहा कि प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) का पद सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है और न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि उसे सौंपी गई जिम्मेदारी है।
मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाह और न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन एवं न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर की तीन सदस्यीय पीठ का 88 पन्नों का यह फैसला प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन के लिए एक निजी धक्के के रूप में देखा जा रहा है। जिन्होंने आरटीआई ऐक्ट के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना के प्रकटीकरण का विरोध किया था।
दिल्ली उच्च न्यायालय की इस तीन सदस्यीय पीठ ने उच्चतम न्यायालय की यह दलील खारिज कर दी कि प्रधान न्यायाधीश के पद को आरटीआई ऐक्ट के दायरे में लाने से न्यायिक स्वतंत्रता बाधित होगी।
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि उसे सौंपी गई जिम्मेदारी है। अदालत ने साथ ही कहा था कि यह नहीं कहा जा सकता है कि अन्य न्यायाधीशों के साथ प्रधान न्यायाधीश का न्यासीय संबंध न्यासी और लाभार्थीयों के बीच का रिश्ता नहीं है।
खचाखच भरे अदालत कक्ष में फैसला सुनाते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने न्यायपालिका में पारदर्शिता लाने के लिए एक कदम आगे बढ़ाते हुए एलान किया कि उसके न्यायाधीश एक हफ्ते के अंदर अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करेंगे।
उल्लेखनीय है कि प्रधान न्यायाधीश लगातार यह कहते रहे हैं कि उनका पद आरटीआई ऐक्ट के दायरे में नहीं आता और इस अधिनियम के तहत उसके न्यायाधीश अपनी संपत्ति की घोषणा समेत सूचनाएं सार्वजनिक नहीं कर सकते। उच्च न्यायालय ने कहा कि इस विवादस्पद मुद्दे पर उसका दो सितंबर का फैसला
कहता है कि प्रधान न्यायाधीश एक लोक प्राधिकार है और उसका पद आरटीआई ऐक्ट के दायरे में आता है।
इस आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री ने दलील दी थी कि एकल पीठ ने यह तय करने में गलती की है कि प्रधान न्यायाधीश का पद पारदर्शिता कानून के दायरे में आता है और उसने उसके प्रावधानों की व्याख्या बेहद व्यापक तरीके से की जो ’अनावश्यक’ और ’अतार्किक’ है।
उच्चतम न्यायालय ने यह भी दलील दी थी कि न्यायाधीशों को लोक परिनिरीक्षा में नहीं लाया जा सकता क्योंकि यह उनके काम-काज और स्वतंत्रता को बाधित करेगी।
अटार्नी जनरल गुलाम ई. वहानवती ने उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्री की आ॓र से पेश होते हुए दलील दी थी, हम अपने न्यायाधीशों को लोक परिनिरीक्षा या जांच के रूबरू नहीं कर सकते क्योंकि यह उनके काम-काज और स्वतंत्रता को बाधित करेगी।
अटार्नी जनरल ने यह दलील दी थी कि अन्य एजेंसियों को न्यायपालिका में दखल अंदाजी करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए। वहानवती ने दलील दी थी, जजों का लेखा-जोखा लोक अवधारणा से नहीं किया जाना चाहिए। न्यायपालिका को किसी तीसरे पक्ष के समक्ष नहीं लाया जाना चाहिए। अटार्नी जनरल ने दलील दी थी, तंत्र में बेहतर पारदर्शिता और जवाबदेही रहने से कोई समस्या नहीं, लेकिन यह तंत्र के अंदर से आनी चाहिए। सम्पति के ब्योरे सार्वजनिक करने पर सार्वजनिक मंच पर बहस तेज होने के बाद प्रधान न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों ने दो नवंबर को स्वैच्छिक रूप से अपनी संपत्ति का ब्योरा आधिकारिक वेबसाइट पर पेश कर सार्वजनिक कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने अपनी अपील में कहा था कि न्यायापालिका की स्वतंत्रता सर्वोपरि है। अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने कहा कि संपत्ति की घोषणा पर 1997 में सर्वसम्मति से पारित उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के प्रस्ताव पर अब सवाल नहीं किया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट कानूनी रूप से अपनी संपत्ति की घोषणा के लिए बाध्य हैं और उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीश न्यायिक मजिस्ट्रेटों से कम जवाबदेह नहीं हैं। अपनी दलीलों के दौरान एटार्नी जनरल ने कहा था कि आरटीआई ऐक्ट के तहत अगर प्रधान न्यायाधीश का पद लोक प्राधिकार घोषित किया जाता है तो फिर लोग न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादलों के बारे में सूचना चाहेंगे। उच्चतम न्यायालय ने दलील दी थी कि संपत्ति का ब्योरा घोषित करने का
उसके न्यायाधीशों की आ॓र से पारित प्रस्ताव उनपर बाध्यकारी नहीं है क्योंकि यह न्यायपालिका के लिए आत्म नियमन के तंत्र का एक हिस्सा है। उच्च न्यायालय ने कहा, अगर हम आपकी (उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्री की) दलील (कि प्रस्ताव न्यायाधीशों पर बाध्यकारी नहीं है) मान लें तो इसका आत्मनियमन पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। यह बाध्यकारी है और इसका गैर-अनुपालन के
कुछ खास नतीजे हैं।
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