नई संसद भवन के लोकार्पण में PM Modi से हो गई चूक!
नई संसद भवन का बनना कोई मामूली बात नहीं है। नई संसद बनने का मतलब एक इतिहास का बनना है। नई संसद लोकतांत्रिकक ताने-बाने का एक प्रतीक है।
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लोकतंत्र का एक नया मंदिर है। आम तौर पर किसी भी मंदिर के लोकार्पण और उसमें स्थापित होने वाली मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा के समय बिन बुलाए ही श्रद्धालु शामिल हो जाते हैं। लेकिन लोकतंत्र के नए मंदिर के लोकार्पण कार्यक्रम में सिर्फ एक राजनैतिक पार्टी के लोगों का शामिल होना भी आज इतिहास का एक हिस्सा बन गया। कुछ दशकों बाद हमारे देश के बच्चे अपने अपने माता-पिता से यह सवाल जरूर पूछेंगे किआखिर ऐसी कौन सी वजह थी कि नए लोकतंत्र के मंदिर के लोकार्पण के समय कुछ खास लोग या सिर्फ एक ही राजनैतिक पार्टी के नेता ही शामिल हुए थे। बच्चों के इन प्रश्नों का उत्तर देना शायद किसी भी माता-पिता के लिए आसान नहीं होगा।
नई संसद भवन की बुनियाद 10 दिसंबर 2020 को रखी गई थी। यानी उसका शिलान्यास लगभग सवा दो साल पहले किया गया था। शिलान्यास भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद किया था। उस समय विपक्षी पार्टी के नेताओं ने उसका विरोध किया था। विपक्ष के नेताओं का उस समय का विरोध दो बातों को लेकर था। पहला कि, जब एक संसद भवन पहले से ही मौजूद है, जो मजबूत भी है, और भव्य भी है, तो फिर नई संसद भवन के नाम पर अरबों रूपये क्यों खर्च किये जा रहे हैं। दुसरा यह कि शिलान्यास राष्ट्रपति के हाथों से क्यों नहीं कराया गया था।
जब इस नई संसद भवन के लोकार्पण की बात सामने आयी तो विपक्षी नेताओं ने एक बार फिर सरकार को घेरना शुरू कर दिया। हालांकि इस बार विरोध इस संसद भवन को बनाने में खर्च हुए पैसों को लेकर नहीं था बल्कि इस बार विरोध सिर्फ इसलिए था कि गणतंत्र की मुखिया होने के नाते नई संसद भवन का लोकार्पण राष्ट्रपति से क्यों नहीं कराया जा रहा है। विपक्ष की लगभग 19 पार्टियों ने इस लोकार्पण समरोह में शामिल नहीं होने का एलान कर दिया। विपक्ष के तमाम आरोपों को दरकिनार करते हुए सत्ता पक्ष ने वही किया जैसा वो चाहते थे। यानि नई संसद भवन का लोकार्पण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों से ही करवाया गया।
वीरवार यानि 28 मई 2023 को नई संसद भवन के रूप में एक इतिहास लिख दिया गया। पंथनिरपेक्ष देश होने के नाते लोकार्पण समारोह में इसकी झलक भी देखने को मिली। सभी धर्मों के विद्वान् गुरुओं को इसमें आमंत्रित किया गया। हिन्दू ,मुस्लिम ,ईसाई ,जैन ,बौद्ध और अन्य धर्म गुरुओं ने अपने-अपने धर्म के मुताबिक़ अनुष्ठान कर लोकार्पण का कार्य संपन्न करवाया। प्रधानमंत्री कई बार कह चुके हैं कि वो देश के 140 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री हैं। लेकिन इस लोकार्पण समारोह में 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व कहीं नहीं दिखा। सबको पता है कि यह नई संसद भवन किसी नेता या किसी उद्योगपति की जागीर नहीं है। यह देश की संपत्ति है, बावजूद इसके लोकार्पण समारोह में पूरा देश कहीं नहीं दिखाई दिया। सिर्फ सत्ता पक्ष के लोगों या उनके नेताओं की ही वहां मौजूदगी रही। ऐसा लगा जैसे नई संसद भवन सिर्फ सत्ताधारी पार्टी के लोगों के लिए ही बना है।
इस नई संसद भवन के लोकार्पण समारोह में विपक्ष राष्ट्रपति की भूमिका तलाश रहा था। विपक्ष की सिर्फ इतनी सी मांग थी कि इसका लोकार्पण राष्ट्रपति के हाथों से कराया जाय। राजनीति में आरोप प्रत्यारोप का चलन कोई नया नहीं है। पार्टी कोई भी हो किसी भी काम में राजनीति करने से कोई भी परहेज नहीं करता है। संभव है कि यहाँ भी विपक्ष के नेता राजनीति कर रहे हों। चूंकि राष्ट्रपति आदिवासी समाज से आती हैं, ऐसे में संभव है कि विपक्ष के नेता उनके नाम पर देश भर के आदिवासियों और दलितों की सहानुभूति लेना चाह रहे हों, लेकिन सत्ता पक्ष को यह समझना चाहिए था कि नई संसद भवन का लोकार्पण एक इतिहास का हिसा बनने जा रहा है।
देश को आभास होना चाहिए था कि सभी पार्टी के नेता इस गौरवशाली क्षण के हिस्सा बने हैं। लिहाजा सत्ता पक्ष को एक बार झुककर भी सभी नेताओं को आमंत्रित करना चाहिए था। इस इतिहास का सभी को साक्षी बनाना चाहिए था। प्रधानमंत्री मोदी को खुद ही पहल कर विपक्ष के नेताओं से कहना चाहिए था कि आइए सभी लोग,इस ऐतिहासिक क्षण का हिस्सा बनिए। उनको कहना चाहिए था कि जो भी शिकवे गिले हैं, हम उन्हें बाद में दूर कर लेंगे, अभी इसमे शामिल होइए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री मोदी से यहां जरूर चूक हो गई।विपक्ष ने चाहे कितनी ही गलतियां क्यों ना की हों, लेकिन इस मामले में देश की जनता शायद मोदी को ही कटघरे में खड़ा करेगी।
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