सोसाइटी में बेहतर सोच के निर्माण के लिए नए इमाम संगठन की ज़रूरत: मुफ्ती अशफाक हुसैन क़ादरी
एक मोटे अनुमान के अनुसार भारत में लगभग पाँच लाख इस्लामी स्थल हैं जिसमें सबसे अधिक मस्जिदें हैं। इसके बाद दरगाह, ख़ानक़ाहें और मदरसे हैं।
समाज निर्माण के लिए नए इमाम संगठन की ज़रूरत (प्रतिकात्मक फोटो) |
इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा तो नहीं है लेकिन राज्यों के वक़्फ़ बोर्ड में पंजीकृत कुल मस्जिदों, मदरसों और दरगाहों के दर्ज आँकड़ों के बाद एक अनुमानित ग़ैर रजिस्टर्ड सम्पत्ति का ब्यौरा जोड़कर यह अंदाज़ा लगाया गया है। इसमें सबसे अधिक स्थल उत्तर प्रदेश में हैं, इसके बाद बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और राजस्थान में हैं।
मध्यप्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, तेलंगाना और कर्नाटक में भी इस्लामी स्थलों की बड़ी संख्या है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पूरे भारत में इन पाँच लाख स्थलों के कोई न कोई प्रमुख तो हैं जो इन्हें संचालित करते हैं। अगर एक संस्था पर एक व्यक्ति को भी आनुपातिक रूप से जोड़ा जाए तो व्यक्तियों की यह संख्या भी पाँच लाख बैठती है। जाहिर है इस में मस्जिदों की संख्या अधिक है और इसी आधार पर इमामों की संख्या भी।
हर मस्जिद में एक मुअज़्ज़िन भी होता है जिसका काम मस्जिद की देखरेख और अज़ान देना है। अगर एक मस्जिद और संस्था में दो लोगों की संख्या का अनुमान लगाया जाए कि यह संख्या 10 लाख होती है। कहने की आवश्यकता है कि भारत की हर मस्जिद में लगभग जुमे की नमाज़ होती है और नमाज़ के पहले अरबी में ख़ुत्बा होता है जो पैग़म्बर हजरत मुहम्मद साहब की सुन्नत है। अधिकांश भारतीयों को अरबी नहीं आती और यह ख़ुत्बा पढ़ा जाना भी अनिवार्य है। इस कमी की पूर्ति के लिए मस्जिद के इमाम ख़ुत्बे से भी पहले एक तक़रीर करते हैं जो आमतौर पर 30 मिनिट से लेकर एक घंटे की होती है। इसमें इमाम इस्लाम धर्म की विशेषताओं, व्यक्तियों पर धार्मिक संहिता, शरीयत की आवश्यकता, सामान्य सामाजिक नियमों समेत परलोक की जानकारियां देते हैं। क़ुरआन और हदीस की रौशनी में जीवन जीने के तरीके और सामाजिक सद्भाव और सौहार्द पर लोगों की समझाइश की जाती है।
आम तौर पर उर्दू में की जाने वाली इन तक़रीरों में राष्ट्र के प्रति कर्तव्य और सामाजिक सौहार्द के पहलू छूट जाते हैं, क्योंकि मुस्लिम समाज के आंतरिक मसलों पर चर्चा में ही समय चला जाता है। इसके अतिरिक्ति इमाम इस्लामी कैलेंडर के तहत आने वाले विषयों पर भी बोलते हैं जैसे रमज़ान में इसके महत्व पर प्रकाश डाला जाता है, ज़िलहिज में हज और क़ुर्बानी और मुहर्रम में करबला के वाक़ये पर। इमामों तक यह बात पहुंचनी आवश्यक है कि एक कामयाब समाज अंततः एक स्थिर राष्ट्र और एक मज़बूत राजनीतिक व्यवस्था से ही संभव है।
मस्जिदों के इमामों को लेकर देश में लगभग पाँच बड़े संगठन पहले से काम कर रहे हैं। इसमें दो संगठनों को हम व्यवस्थित तो कह सकते हैं लेकिन सामाजिक चिंता के नाम पर वह लोगों को समस्या तो बता देते हैं, हल नहीं सुझा पाते। इसकी हानि यह हो रही है कि समाज में पहले से घर कर चुकी निराशा को और बल मिलता है। जबकि इमामों की ज़िम्मेदारी है कि वह समाज में व्याप्त समस्याओं का विधिसम्मत निदान करने में मदद करें। सरकार की योजनाओं के लाभ उठाने की कोशिश करे, बच्चों की तालीम और सौहार्द क़ायम रखने पर बल दें।
यह भी स्वाभाविक है कि इनके प्रशिक्षण की आवश्यकता है क्योंकि यह भी होता है कि जो बात जानकारी में नहीं आ पाती, उसका महत्व भी नहीं समझा जाता।
भारत में मुसलमान अपनी विचारधारा के आधार पर कई सम्प्रदायों में बँटे हुए हैं तथापि इसमें बहुमत अहले सुन्नत वल जमात (सूफ़ी) का है। दुर्भाग्य की बात है कि इमामों के लिए इसके पास कोई संगठन नहीं है जबकि यह मुसलमानों ख़ासकर सुन्नियों का बहुमत है। देश में अगर सभी इमामों के पास यदि समाज के मौलिक विषयों और चिन्ताओं पर जुमे के लिए तक़रीर का विषय और शोध चला जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे आ सकते हैं।
केन्द्र सरकार की योजनाओं, राज्य सरकारों की योजनाओं, शैक्षणिक अवसर एवं उपयोगिता, स्वरोज़गार, बैंकिंग एवं वित्तीय सुविधाएं, रोज़गार के अवसर, नौकरियों के नोटिफ़िकेशन, एडमिशन डैडलाइन, करियर काउंसलिंग, महिलाओं एवं बच्चों के लिए कल्याणकारी योजनाएं और मानवाधिकार समेत कई मुद्दे मुसलमान समाज के लिए सुलगते सवाल हैं। इन मुद्दों पर अगर इमाम को जानकारी नहीं है तो हज़रत उमर के कथन में उसे इमामत करने का अधिकार नहीं है।
इमामों के ख़ुत्बे अब सिर्फ़ पुरानी किताबों के अध्याय पढ़ने या मानवाधिकार का रोना रोकर कट्टरता फैलाने वाले से आगे जाना होगा। मुसलमानों को अपनी समस्याओं का गहरा ज्ञान है। वह हल चाहते हैं। हल आंदोलनों, जोश, जलसों से नहीं निकल सकता। उसके लिए सबसे पहले योजना चाहिए। फिर ललक और आख़िरकार उस पर गंभीरता से काम करना चाहिए। इमामों के प्रशिक्षण के ज़रिये उन्हें भी यह अवगत करवाया जाना चाहिए कि मात्र चुनौतियों के ज़िक्र से भी कुछ नहीं होता।
अन्तत: इसके लिए इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब के बताए मार्ग पर ही चलना होगा। इमामों की मदद के लिए उन्हें हर सप्ताह ख़ुत्बे की सामग्री मुहैया करवाई जानी चाहिए।
इमामों के पांच संगठन पहले से ही वजूद में है जिसमें पॉपुलर फ्रंट की ऑल इंडिया इमाम काउंसिल के साथ मौलाना उमेर इल्यासी की इमाम ऑर्गेनाइजेशन तो हैं ही साथ में कुछ अन्य संगठन भी इमामों के लिए काम कर रहे हैं।
देश के सबसे बड़े मुस्लिम तबके यानी अहले सुन्नत यानी सूफ़ी यानी बरेलवी समुदाय का ना कोई इमाम संगठन है और ना ही इनको दिशा देने वाला कोई थिंक टैंक है। जाहिर है कि यह देश की सबसे ज्यादा मस्जिदों में इमाम की भूमिका निभा रहे हैं परंतु इनके प्रयास और बोली जाने वाली तकरीर का भाव समान नहीं होता। ऐसा भी देखा गया है कि कई मस्जिदों में यह तकरीर भी नहीं करते बल्कि सीधे अरबी में ख़ुत्बा देते हैं।
ऐसे में ज़रूरत है एक ऐसे इमाम संगठन कि जो हर शुक्रवार दिए जाने वाले ख़ुत्बा यानी संबोधन के लिए उन्हें सामग्री मुहैया कराए और इस सामग्री का संबंध देश को मजबूत करने, शांति और सौहार्द कायम रखने, देश की एकता - अखंडता को बनाए रखने और अध्ययन एवं मेहनत से समाज के हालात बदलने पर जोर दिया जाए। साथ ही भड़काऊ तत्वों से सचेत रहने और बच्चों को सही दिशा देने पर फोकस किया जाए।
(मुफ्ती अशफाक हुसैन क़ादरी, ऑल इंडिया तंजीम उलेमा ए इस्लाम के चेयरमैन और दिल्ली के क़ादरी मस्जिद के इमाम हैं)
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