सर्वांगीण प्रगति
सोचने की प्रक्रिया में विषयों पर एकाग्रता ही नहीं, स्वस्थ और सही दृष्टिकोण का होना भी अति आवश्यक है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
माना जाता है कि किसी भी विषय पर दो प्रकार से सोचा जा सकता है-विधेयात्मक भी, निषेधात्मक भी। ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, लेकिन इन दोनों ही दिशाओं में एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है। इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को हर व्यक्ति जानता है कि निषेधात्मक चिन्तन से मनुष्य की वैचारिक क्षमताओं में हृास होता है जबकि विधेयात्मक दृष्टिकोण से ही चिन्तन का सही लाभ लिया जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि निषेधात्मक चिन्तन से यथासंभव बचाए जाए। निषेधात्मक चिन्तन से बचने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि अपनी गरिमा पर विचार करते रहा जाए तथा बराबर यह अनुभव किया जाए कि मानव जीवन एक महान उपलब्धि है, जिसका उपयोग श्रेष्ठ कार्यों में होना चाहिए।
निकृष्ट चिन्तन मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ता और उसकी गरिमामय स्थिति से गिराता है, यह विश्वास जितना सुदृढ़ होता चला जाएगा-विधेय चिन्तन को उतना ही अधिक अवसर मिलेगा। पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने पर भी सही चिन्तन बन नहीं पड़ता। किसी विचारक का यह कथन शत-प्रतिशत सच है कि ‘जो जितना पूर्वाग्रही हो वह चिन्तन की दृष्टि से उतना ही पिछड़ा होगा।’ यह संसार परिवर्तनशील है और परिवर्तनशील इस संसार में मान्यताओं एवं तथ्यों के बदलते देरी नहीं लगती। अतएव मन-मस्तिष्क को सदा खुला रखना चाहिए ताकि यथार्थता से वंचित न रहना पड़े। खुले मन से हर औचित्य को बिना किसी ननुनच के स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
तथ्यों की ओर से आंखें बन्द रखने पर कितनी ही जीवनोपयोगी बातों से वंचित रह जाना पड़ता है। किसी विषय पर एकांगी चिन्तन भी सही निष्कषरे पर नहीं पहुंचने देता। उस चिन्तन में मनुष्य की पूर्व मान्यताओं का भी योगदान होता है। सही विचारणा के लिए यह भी आवश्यक है कि अपनी पूर्व मान्यताओं, आग्रहों तथा धारणाओं का भी गम्भीरता से पक्षपातरहित होकर विश्लेषण किया जाए अर्थात पक्ष और विपक्ष, दोनों पक्षों पर ही सोचा जाए। किसी विषय पर एक तरह से सोचने की अपेक्षा विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखकर चिन्तन किया जाए। स्वस्थ और यथार्थ चिन्तन तभी बन पड़ता है। एकांगी मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों को तोड़ना सम्भव हो सके तो सर्वागीण प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
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