अबकी बार लंबी चलेगी महंगाई की मार
कोरोना की दूसरी मार से उबरती अर्थव्यवस्था में महंगाई का दंश भी सामने आ रहा है। इसका असर रोजमर्रा की चीजों पर दिखने लगा है। महंगाई का मुख्य कारण पेट्रोल-डीजल के दामों में लगातार हो रही बढ़ोतरी है। अक्टूबर की ही बात करें, तो महीने के पहले 21 दिनों में 16 बार पेट्रोल-डीजल के दाम में बढ़ोतरी हो चुकी है।
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इसका प्रभाव यह हुआ है कि केवल तीन हफ्ते में ही पेट्रोल 4.90 रुपये और डीजल 5.40 रुपये और महंगा हो गया है। इससे भी बुरी बात यह है कि यह समस्या का अंत नहीं, बल्कि और बड़ी परेशानी की शुरु आत बनता दिख रहा है। वजह है तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार में बन रहे हालात। घरेलू जरूरत का 85 फीसद पेट्रोल बाहर से मंगवाने की मजबूरी भारत को दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा आयातक बनाती है, और इसमें बड़ा हिस्सा तेल उत्पादक संगठन ओपेक से होता है। इसी ओपेक का एक अहम सदस्य है इराक और वहां के तेल मंत्री ने संकेत दिया है कि यह साल की पहली और दूसरी तिमाही के बीच कच्चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को पार कर लेगा। इस पर तुर्रा यह है कि कमजोर मांग का हवाला देकर ओपेक ने उत्पादन बढ़ाने से भी इनकार कर दिया है। यानी हालात करेला और वो भी नीम चढ़ा वाले बन रहे हैं, जिससे पेट्रोल-डीजल में पहले से लगी आग का भड़कना तय है। बेंचमार्क ब्रेंट क्रूड के दाम फिलहाल 85-86 डॉलर प्रति बैरल के आसपास चल रहे हैं। इसमें 14-15 डॉलर प्रति बैरल का इजाफा होने का मतलब क्या यह होगा कि नये साल का स्वागत हमें अपने-अपने वाहनों में 150 रुपये प्रति लीटर का पेट्रोल डालकर करना होगा?
अर्थव्यवस्था पर असर
कोरोना के पहले से ही हिचकोले खा रही अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पड़ेगा? पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ना यानी महंगाई पर सीधा असर पड़ना और महंगाई का बढ़ना मतलब मांग का घटना। ऐसे हालात बनने पर पहले कहा जाता था कि इससे गरीब और गरीब हो जाएंगे लेकिन अब तो ऐसी स्थिति में मध्यम वर्ग के भी हाशिए पर चले जाने का खतरा बन जाता है। इसलिए जब सरकार अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश कर रही हो, तो तेल का यह खेल न केवल उसकी चुनौती बढ़ाएगा, बल्कि मांग के साथ-साथ समाज का एक बड़ा वर्ग भी इससे प्रभावित होगा।
इसका एक परोक्ष इशारा भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास की सरकार से की गई उस अपील में भी मिलता है, जिसमें उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से तेल की कीमतें कम करने का आग्रह किया है। महंगाई को लेकर आने वाले दिनों का उनका अनुमान भी देश के लिए किसी अलर्ट से कम नहीं होना चाहिए। रिजर्व बैंक ने वर्ष 2022-23 के लिए सीपीआई मुद्रास्फीति के 5.2 फीसद तक रहने का पूर्वानुमान जारी किया है। इसकी आंच मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही से महसूस होना शुरू हो सकती है, जिसमें महंगाई के 5.8 फीसद तक पहुंचने का अंदेशा है। इससे लगता है कि सितम्बर में पिछले पांच महीनों की सबसे बड़ी गिरावट के बाद 4.35 फीसद तक आ गई महंगाई दर से मिलने वाली राहत भी फौरी ही साबित होगी। शायद इसी वजह से ये सवाल बार-बार उठ रहे हैं कि सरकार भले दावा कर रही हो कि खाने-पीने की वस्तुओं के दाम अगस्त के 3.11 फीसद के मुकाबले 0.68 फीसद गिर गए हैं, लेकिन घटती महंगाई का फायदा आम लोगों तक क्यों नहीं पहुंच रहा है?
पेट्रोल-डीजल पर टैक्स प्रमुख वजह
देश की रेटिंग एजेंसियां पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले टैक्स पर हमारी अर्थव्यवस्था की अत्यधिक निर्भरता को इसकी प्रमुख वजह बताती हैं। भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 60 फीसद हिस्सा टैक्स का होता है। इसमें केंद्र सरकार की ओर से लगने वाली एक्साइज ड्यूटी और राज्य सरकारों का वैट प्रमुख है। इसी साल मार्च में लोक सभा में पेश आंकड़ों के अनुसार 2014 में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 9.48 रु पये थी जो 2021 में बढ़कर 32.90 रु पये तक पहुंच गई है। यानी पिछले सात साल में एक्साइज ड्यूटी 300 फीसद तक बढ़ी है। जहां तक राज्यों का सवाल है, तो पेट्रोल पर सबसे ज्यादा वैट मध्य प्रदेश में और डीजल पर राजस्थान की सरकारें वसूल रही हैं। देश में जीएसटी की व्यवस्था लागू होने के बाद से तो पेट्रोलियम पदाथरे से मिलने वाला राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। पिछले दशक में देश की जीडीपी में इसका योगदान करीब दो फीसद तक रहा है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि साल 2014-15 में पेट्रोल-डीजल से कुल 1,720 अरब रु पये का उत्पाद शुल्क मिला था, जो साल 2019-20 तक 94 फीसद बढ़कर 3,343 अरब रु पये तक पहुंच गया था। इसी अवधि में वैट का कलेक्शन 1,607 अरब रु पये में 37 फीसद की वृद्धि के साथ 2,210 अरब रु पये रहा।
सरकार की टालमटोल
इस कमाई पर उठने वाले हर सवाल को सरकार इस दावे के साथ टाल जाती है कि देश के लोगों से हो रही कमाई देश के ही काम आ रही है। आखिर, जनकल्याणकारी और विकास की योजनाओं के लिए पैसे कहां से आएंगे? लेकिन फिर सरकार महंगे ईधन के बदले महंगाई को काबू में लाने का प्रयास क्यों नहीं करती? या फिर महंगाई नियंतण्रअब सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहा? अक्सर इसका एक सिरा चुनावी नफे-नुकसान से भी जोड़ कर देखा जाता है। यह एक ऐसा विषय है, जिसमें सरकार का अभी तक का रिपोर्ट कार्ड तो अप्रभावित दिखता है। वैसे भी आसपास नजर घुमा कर देखें तो कोरोना के बाद महंगाई की मार पूरी दुनिया झेल रही है। एक स्टडी के अनुसार आज जो मौजूदा हालात हैं, वो पिछले 40 साल में कभी नहीं देखे गए। ब्रिटेन में महंगाई तीन साल के उच्चतम स्तर को छू रही है, तो अमेरिका की थोक महंगाई पिछले 12 महीनों का नया रिकॉर्ड बना रही है। चीन से लेकर सूडान तक ऐसा कोई देश नहीं दिखता, जो महंगाई को काबू में करने का दावा करने की हालत में हो। दुनिया भर के विशेषज्ञ अब महंगाई पर नियंतण्रकी चर्चा छोड़कर इस सवाल के जवाब को लेकर ज्यादा उत्सुक हैं कि इसका लोगों की खरीदने की क्षमता पर कितना असर पड़ता है?
वैकल्पिक ईधन है टिकाऊ निदान
वैकल्पिक ईधन इसका एक मजबूत और टिकाऊ निदान साबित हो सकता है, लेकिन इस दिशा में हो रहे प्रयास कितने मजबूत हैं? पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अगले छह महीनों में 100 फीसद बायोफ्यूल से चलने वाले वाहनों को बाजार में उतारने की बात कही है। अगर यह योजना साकार हो जाती है, तो पेट्रोल की ऊंची कीमतों से परेशान उपभोक्ताओं को इससे बड़ी राहत मिल सकती है। वर्तमान में पेट्रोल की दर 110 रु पये प्रति लीटर है जबकि बायो एथेनॉल 65 रु पये प्रति लीटर की दर से उपलब्ध है। वैसे सरकार ने देश की ऑटो कंपनियों के सामने अगले पांच साल में सभी ईधन से चलने वाले वाहन तैयार करने का लक्ष्य रखा है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक से लेकर सौर ऊर्जा और हाइड्रोजन जैसे विकल्प शामिल हैं, जो पर्यावरण के साथ ही विदेशी मुद्रा भी बचाएंगे। लेकिन ये सभी विकल्प धरातल पर उतरने में अभी वक्त लेंगे और महंगाई से फौरी निजात की उम्मीद फिलहाल तो बेहद कम ही दिखती है।
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