विश्वसनीयता बहाली की चुनौती
खींचों न कमानों को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। अकबर इलाहाबादी का यह शेर आजादी के तरानों के बीच बड़े अदब के साथ पढ़ा-सुना जाता था। लेकिन जो शेर गुलामी के दौर में मीडिया से आवाम की अपेक्षाओं का आइना बना था, अफसोस की बात है कि आज वही मीडिया समाज के अक्स को दिखाने की अपनी जिम्मेदारी से दूर होता जा रहा है।
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बेशक, इमरजेंसी के काले दौर को छोड़ दिया जाए, तो आजाद भारत में भी मीडिया लंबे समय तक उस पहचान पर खरा उतरता रहा, लेकिन यह भी सच है कि बदलते वक्त की जंग ने मीडिया से जुड़े भरोसे को बदरंग किया है।
जमाने को कटघरे में खड़ा करने वाला मीडिया आज खुद जनता की अदालत में खड़ा है। सबसे बड़ा आरोप उसकी सबसे बड़ी पहचान को लेकर ही लग रहा है। वो यह कि मीडिया अब जनता की कीमत पर सरकारों के सरोकारों की चिंता में उलझ गया है। कहा जाने लगा है कि कभी समाज का वॉचडॉग रहा मीडिया अब ऐसा घोड़ा बन गया है, जिसके लिए टीआरपी की रेस में जीत और सत्ता से प्रीत ही ‘कामयाबी’ की रीत बन गई है। मीडिया की भूमिका में यह बदलाव रातों-रात नहीं आया है, गिरावट का दौर पिछले चार-पांच दशकों से जारी है।
इसी तरह इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भले ही मीडिया से हमेशा अपेक्षा रही हो कि वो वहीं खबरें दिखाए जिनसे लोगों का सरोकार हो, लेकिन मीडिया के कर्तव्य कभी निर्धारित नहीं थे। यह कौन तय करेगा कि देश के लिए एक अभिनेता की मौत का ‘सच’ जानना ज्यादा जरूरी है या करोड़ों बेरोजगारों की रोजी-रोटी से जुड़े ‘झूठ’ का पर्दाफाश जरूरी है, एक अभिनेत्री पर रोज बदलते सवाल जानना जरूरी है या देश की जीडीपी का हाल ज्यादा जरूरी है, एक दूसरी अभिनेत्री के रोज ‘अपसेट’ होने की वजह जानना जरूरी है या सीमा पर देश की सुरक्षा का अपडेट जरूरी है।
यह मान लेना नादानी होगा कि मीडिया को इस बात का अहसास नहीं कि जनता का सरोकार किन खबरों से है। फिर सवाल है कि आखिर, मीडिया की वरीयता में जनता के सरोकार क्यों पीछे छूटते जा रहे हैं? जिन खबरों से आम जनता का कोई फायदा नहीं, गिनती के लोगों को छोड़कर किसी का लेना-देना नहीं, आखिर उन खबरों को देखता कौन है? या फिर क्या जनता को उसके सरोकार से जुड़े सवालों से दूर करने के लिए ऐसी खबरें जान-बूझकर दिखाई जाती हैं?
झूठ को सच बताने का खेल
इस प्रक्रिया को पोस्ट ट्रूथ शब्द से समझा जा सकता है, जिसमें तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। इसमें अलग-अलग संस्थाएं, राजनीतिक दल, इन दलों के नेता, प्रवक्ता गलत तथ्यों को सामने रखकर बार-बार इतना दोहराते हैं कि झूठ भी सच लगने लगता है। समाज के एक वर्ग की मान्यता है कि मीडिया की साख पर दाग लगने की बड़ी वजह यह भी है कि वह भी लोगों को झूठ पर यकीन दिलाने के खेल में शामिल हो गया है।
जनरल (रिटार्यड) वीके सिंह जब मोदी 1.0 में विदेश राज्यमंत्री हुआ करते थे, तब इसी तरह की पत्रकारिता के लिए उन्होंने प्रेस्टीट्यूट शब्द का इस्तेमाल तक कर दिया था। हालांकि बाद में उन्होंने इस पर सफाई भी दी, लेकिन इसके बावजूद मीडिया के निष्पक्ष रहने की जिम्मेदारी पर लगा सवाल दूर नहीं हो पाया।
बहस का गिरता स्तर
सच बेशक जांच का विषय हो सकता है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि समाचार चैनलों पर अब जनता का सरोकार खबरों के साथ-साथ प्राइम टाइम बहस से भी दूर होता जा रहा है। बहस का गिरता स्तर चिंता का एक और विषय बन चुका है। तर्क की जगह हो-हल्ला, मर्यादित विवाद के बजाय शोर-शराबा और तथ्यों की जगह एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना इन समाचार चैनलों की बहस की पहचान बन गई है। बहस मॉडरेट करने वाले कई एंकर भी एक ही विचारधारा के समर्थन वाली राजनीतिक हेजिमनी के शिकार लगते हैं। इन पर मिसइन्फॉर्मेशन से लेकर पक्षपात और एजेंडा चलाने तक के आरोप लग चुके हैं। क्या यह काबिलियत की कमी है या फिर दरअसल यही नये दौर की ‘काबिलियत’ है? देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी इस बात पर चिंता जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ्ते एक सुनवाई में कहा है कि चैनलों पर डिबेट में सिर्फ एंकर ही बोलते रहते हैं और स्पीकर को म्यूट कर दिया जाता है।
तो इसका इलाज क्या है? वैसे सुप्रीम कोर्ट ने नियमन का रास्ता सुझाया है। हालांकि प्रिंट मीडिया के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंर्डड्स अथॉरिटी तो पहले से ही अस्तित्व में है। डिजिटल मीडिया के लिए जरूर फिलहाल कोई नियामक संस्था नहीं है। लेकिन जो नियामक संस्थाएं हैं भी, उनका जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी जानना चाहा है कि लेटर हेड के अलावा भी कोई अस्तित्व है क्या? सरकार की ओर से नियमन की कोई शुरु आत बिल्ली भगाने के लिए हाथी पालने जैसी बात हो सकती है। बापू ने इसका इशारा वर्षो पूर्व कर दिया था। बापू का कहना था कि कलम की निरंकुशता खतरनाक हो सकती है, लेकिन उस पर व्यवस्था का अंकुश और ज्यादा खतरनाक है। ऐसे में सेल्फ रेगुलेशन ही विकल्प हो सकता है, लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति के साथ मीडियाकर्मिंयों और उनके मालिकों तक में आमूलचूल बदलाव की जरूरत पड़ेगी। वैसे रिपॉर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की तीन साल पहले आई रिपोर्ट में इस बात का जिक्र मिलता है कि आलोचनाओं से बचने के लिए भारतीय मीडिया का एक वर्ग सेल्फ सेंशरशिप लागू कर रहा है।
क्या इससे मीडिया की विसनीयता को हुई क्षति की भरपाई हो सकेगी? जरूर हो सकती है। ऐसा नहीं है कि मीडिया सिर्फ पक्षपात या एजेंडा ही चला रहा है। मीडिया की पहल से कई खुलासे हुए हैं, भ्रष्ट सरकारें बेनकाब हुई हैं, कानून में संशोधन हुए हैं, समाज में बदलाव आया है। लिस्ट काफी लंबी है और देश को इसका संज्ञान भी है।
लेकिन आज के दौर में चुनौती केवल मीडिया के निष्पक्ष बने रहने और जनता के सरोकार से जुड़े रहने भर की नहीं है। सोशल मीडिया के अनुभवों से यह कहा जा सकता है कि जनता अब खुद ही पुलिस की तरह जांच करने लगी है और खुद ही फैसला सुनाने लगी है यानी सोशल प्लेटफॉर्म पर जनता खुद आज की मीडिया बन गई है। कोई नियामक संस्था नहीं होने से सोशल मीडिया पर आभासी अराजकता का राज है, जिसे ट्रेंडिंग और ट्रॉलिंग जैसे अमोघ शस्त्र और धार दे रहे हैं। सर्वशक्तिशाली होने का यह अहसास किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
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