लम्बी लड़ाई के लिए इंडिया अनलॉक
कोरोना के खिलाफ भारत की लड़ाई अब घर की लक्ष्मण रेखा पार कर आत्मनिर्भर बनने की ओर बढ़ चली है। कोरोना को रोकने के मकसद से लगाया गया लॉकडाउन 68 दिन वाले चार चरण पूरे कर खत्म हो चुका है।
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पिछले करीब एक हफ्ते से देश अनलॉक होने की प्रक्रिया से गुजर रहा है, जिसके तहत कई पाबंदियां हटाई गई हैं। लेकिन इस पर स्पष्टता 8 जून के बाद ही आएगी जब होटल-रेस्टोरेंट, शॉपिंग मॉल और धार्मिंक स्थलों से लेकर शैक्षणिक संस्थानों और राजनीति-मनोरंजन-खेल से जुड़ी दूसरी गतिविधियों को लेकर दिशा-निर्देश सामने आएंगे।
भारत एक ऐसे समय में अनलॉक होने के लिए कदम बढ़ा रहा है, जब गैर-जरूरी वस्तुओं की बिक्री मई महीने में 80 फीसदी गिर चुकी है। यहां तक कि आवश्यक वस्तुओं और दवाओं का बाजार भी मई महीने में 40 फीसदी गिर चुका था। पहले से नीचे की ओर जा रही जीडीपी, जो 4.3 फीसदी की वृद्धि दर पर पहुंच चुकी है, के कोरोना काल से प्रभावित होकर 2020-21 में 0 से -7 प्रतिशत तक पहुंचने के आसार जताए जा रहे हैं।
इस मामले में सरकार का फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाना समझ भी आता है, क्योंकि गतिविधियों का दायरा जितना बढ़ेगा, कोरोना के संक्रमण का खतरा भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। वैसे भी पिछले एक पखवाड़े से संक्रमण की रफ्तार बढ़ी है और प्रभावितों का आंकड़ा बड़ी तेजी से ढाई लाख के करीब पहुंचा है। इसमें से आखिरी एक लाख मामले तो पिछले 15 दिनों में ही सामने आए हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि लॉकडाउन लगाने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जिस कदम पर पूरी दुनिया से प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएं सामने आती रही हैं, उसे हटाने का फैसला सरकार के लिए आसान नहीं रहा होगा।
अनलॉक करने का कदम देश को किस राह पर ले जाएगा यह तो समय ही तय करेगा, लेकिन लॉकडाउन के नफा-नुकसान का आकलन करने के लिए हमारे पास अब पर्याप्त आधार है। पिछले करीब पांच महीने के अनुभव से कोरोना को लेकर दुनिया-भर में समझ बन चुकी है कि लड़ाई लंबी है और यह साल-छह महीने नहीं, बल्कि आने वाले कई साल तक चलेगी। इस मायने में प्रधानमंत्री की ‘पहले जान और फिर जहान’ वाली सोच देश के लिए फायदेमंद और बड़ी तबाही टालने में दूरदर्शी साबित हुई है। सही समय पर लॉकडाउन लगाना दो मोर्चे पर कारगर साबित हुआ। एक तो इसने घनी आबादी वाले हमारे देश में सामुदायिक संक्रमण की अवस्था को अब तक टाल कर रखा है और दूसरा इसने स्वास्थ्य संसाधनों की कमी से जूझ रहे नेशनल हेल्थ केयर सिस्टम को भविष्य की चुनौती के लिए तैयार होने की जरूरी मोहलत दे दी। नतीजा यह है कि संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच हमारी रिकवरी का अनुपात भी 48 फीसद के पास पहुंच गया है यानी ठीक होने वाले मरीजों की तादाद नये मरीजों की तुलना में बढ़ती जा रही है। कोरोना से मौत के मामले भी तीन फीसद तक सिमटे हैं।
..तो हालात बदतर होते
लॉकडाउन नहीं लगाया जाता तो हालात कितने बदतर होते इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। शायद हम इटली, ब्रिटेन, स्पेन को बहुत पहले पीछे छोड़कर आज अमेरिका और ब्राजील से होड़ लगा रहे होते। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अगर कुछ राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन ने लॉकडाउन को केंद्र सरकार की मंशा के अनुरूप लागू किया होता तो कोरोना से हुए नुकसान को और सीमित किया जा सकता था। कहना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार ने तो राज्यों से संवाद करने के बाद ही लॉकडाउन के लिए स्पष्ट दृष्टि और स्पष्ट नीति का फॉर्मूला तैयार किया था, लेकिन इसके स्पष्ट पालन में चुनिंदा राज्यों के हित आड़े आ गए। इसमें केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय की कमी का भी हाथ रहा जिसका नतीजा हमें प्रवासी मजदूरों के बेहद त्रासद पलायन के रूप में दिखा।
मूल रूप से प्रवासी मजदूरों की महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली जैसे प्रांतों में बहुतायत है। जिन प्रदेशों में ये मजदूर लौटना चाहते थे उनमें यूपी, बिहार, ओडिशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल शामिल हैं। जिन प्रदेशों को मजदूर छोड़ना चाहते थे, उनकी रुचि उन्हें वहीं बनाए रखने में थी। मगर, ऐसा तब हो पाता जब उनके लिए रोजगार बचे होते या फिर कम से कम दो शाम के भोजन की गारंटी होती। जिन गृह प्रदेशों में मजदूर लौटना चाहते थे उन प्रदेशों की सरकारों को उन्हें लाने की व्यवस्था करनी चाहिए थी। मगर, 1 मई तक ‘जो जहां हैं, वहीं रहें’ की गृह मंत्रालय की नीति के कारण इस विषय पर कभी विचार ही नहीं किया गया। प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी यह मुद्दा इतनी बारीकी से नहीं उठा। राज्य की सरकारें निश्चिंत थीं कि फैक्ट्री मालिक अपने-अपने मजदूरों को देख लेंगे, उनकी नौकरी बनी रहेगी और सैलरी भी वे देते रहेंगे। मगर, ऐसा नहीं हुआ। इसके बाद जब ‘जो जहां हैं, वहीं रहें’ की नीति में संशोधन हुआ तो ट्रेन-बस को लेकर राज्यों के बीच जमकर राजनीति खेली गई और इसे बेनकाब करने की प्रक्रिया में मजदूरों को प्रताड़ना झेलनी पड़ी।
दो माह से लंबे चले लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के पलायन और राज्यों के बीच आपसी खींचतान के अलावा भी कई ऐसे मसले रहे जिन्हें भविष्य के लिए सबक के तौर पर याद रखे जाने की जरूरत है। सबसे बड़ा सबक तो अपनी जरूरत के लिए दूसरों पर निर्भरता को कम करते हुए आत्मनिर्भर बनने का ही है। इसकी जरूरत को तो खुद प्रधानमंत्री भी रेखांकित कर चुके हैं। इसे सही मायने में किसी ने समझा और महसूस किया है तो वो देश का मजदूर वर्ग ही है जिसके सामने अब आत्मनिर्भर बनने और अपने स्वाभिमान की रक्षा की दोहरी चुनौती है।
समाज की अधूरी तैयारी
लॉकडाउन ने हमें यह भी दिखा दिया कि हम भविष्य की कितनी भी बातें करते हों, असलियत यही है कि ज्यादातर मसलों पर हम इसके लिए कोई योजना नहीं बनाते। सरकार की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन समाज के तौर पर भी इसके लिए हमारी तैयारी अधूरी ही है। हमने ऐसा कोई सिस्टम नहीं बनाया है, जो गरीब और वंचित तबके को इस तरह के संकट में सामाजिक सुरक्षा दे सके। उल्टे हम देख रहे हैं कि धीरे-धीरे ऐसे व्यवसायों और कंपनियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो संकट के समय में अपने कर्मचारियों की मुश्किलें हल करने के बजाय उनकी सैलरी काटने या छंटनी में जुट गई हैं। लॉकडाउन ने हमें यह भी समझाया कि काम को लेकर हमारा नजरिया जिनके लिए सबसे तंग है, वही दरअसल, समाज के सबसे जरूरी अंग हैं। बीते दो महीनों ने हमें सफाईकर्मी, चौकीदार, ड्राइवर, मोहल्ले की दूध-किराना की दुकानों की हमारी जिंदगी में हैसियत समझाई है। समाज के तौर पर हममें से कइयों ने यह भी महसूस किया होगा कि काम-काज से जुड़ी रोज की भाग-दौड़, ट्रैफिक, पैसे से भी ज्यादा जरूरी जीवन का मूल्य है।
अफसोस की बात है कि इस अहसास के बावजूद लॉकडाउन के दौरान समाज के स्तर पर जीवन मूल्यों की कमी दिखाई दी है। लॉकडाउन ने लाखों जिंदगियों को बचाया है, तो हजारों परिवारों को भुखमरी की कगार पर भी पहुंचा दिया है। सरकार बेशक, ऐसे परिवारों को उबारने में लगी हुई है, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी जरूरी हो जाता है कि समाज के स्तर पर हम-आप एक जिम्मेदार नागरिक की कसौटी पर कितने खरे उतरे? बहरहाल, यह व्यक्तिगत आकलन का विषय है, लेकिन इससे यह सार्वजनिक अभिव्यक्ति तो होती ही है कि देश को नया बनाने के साथ ही उसे संवेदनशील बनाना भी जरूरी है। इसकी जरूरत तब और ज्यादा होगी, जब कोरोना पर लगाम के बाद इसके दुष्परिणामों का दूसरा चरण शुरू होगा, जिसमें आर्थिक और सामाजिक दुारियों के जबर्दस्त विस्तार की आशंका है। फिलहाल तो देश के सामने पाबंदियों से इस तरह से अनलॉक होने का टास्क है, जिससे लॉकडाउन में कोरोना के खिलाफ मिली बढ़त को बरकरार रखा जा सके। हमें समझना होगा कि यह ढील हमारे वर्तमान की परेशानियां दूर करने और भविष्य की जरूरतों के लिए है, कोरोना से लड़ाई में ढिलाई के लिए नहीं।
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