भारत छोड़ो आंदोलन : सीखने की है जरूरत

Last Updated 08 Aug 2024 11:56:31 AM IST

भारत छोड़ो आंदोलन की ऐतिहासिकता और उसके असर को जानने के पहले उस दौर की अंतरराष्ट्रीय ऐतिहासिक घटनाओं को जानना इसलिए जरूरी है कि सभी घटनाएं भारत की आजादी की सफलता का आधार तैयार करने का कार्य कर रही थीं।


भारत छोड़ो आंदोलन : सीखने की है जरूरत

एक सितम्बर, 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई और इसी दिन जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया। ब्रिटेन इस युद्ध से अलग नहीं रह सकता था। इसलिए तथाकथित लोकतंत्र और आजादी के नाम पर ब्रिटेन ने 3 सितम्बर, 1939 को जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।

गौरतलब है कि कांग्रेस ने विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ और समर्थन, दोनों दिया। सैकड़ों की तादाद में भारतीयों ने ब्रिटेन की सेना में सैनिक बनकर जर्मनी और जापान की सेनाओं से युद्ध किया। जिस अलोकतंत्रीय ढंग से भारत को विश्व युद्ध में झोंक दिया गया, उसका विरोध कांग्रेस ने किया जरूर, लेकिन जनता के दबाव की वजह से किया। विश्व युद्ध में भारतीयों को झोंकने का यह भी मकसद था कि जो जान-माल का नुकसान हो वे भारतीयों का ही हो, अंग्रेज सिपाहियों का कम से कम हो। वायसराय ने मनमाने ढंग से युद्ध की घोषणा ही नहीं की, बल्कि भारतीयों को आजाद करने का कोई आश्वासन भी नहीं दिया।

इससे कांग्रेस नेताओं को घोर निराशा हुई जिसका विरोध प्रकट करने के लिए गांधी, नेहरू और स्वामी श्रद्धानंद सहित 52 कांग्रेसी नेताओं ने वायसराय से मुलाकात की। वायसराय ने भारतीय नेताओं की बातें सुनीं और 17 अक्टूबर, 1939 को एक वक्तव्य जारी कर कहा कि कांग्रेस की मांग अव्यावहारिक है कि तुरंत भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित कर दी जाए। दूसरी महत्त्वपूर्ण घोषणा यह की कि सारी संवैधानिक योजना पर युद्ध के बाद ही विचार किया जाएगा। वायसराय ने तीसरी बात कही कि एक सलाहकार समिति का गठन किया जाएगा जो उन्हें युद्ध संचालन से ताल्लुक रखने वाले विषयों पर राय देगी।

वायसराय की तीनों घोषणाओं को सभी भारतीय दलों और नेताओं ने मानने से साफ मना कर दिया। गौरतलब है कि तब भारत का बंटवारा नहीं हुआ था और आठ राज्यों में कांग्रेस की प्रांतीय सरकारें अंगेजों की देख-रेख में शासन कर रही थीं। आठों प्रांतों की सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया और उधर प्रांतों का शासन गवर्नरों ने संभाल लिया। लेकिन इससे जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग को अपार खुशी हुई और उसने इसे ‘मुक्ति दिवस’ के रूप में जोर-खरोश के साथ मनाया।

इससे हिन्दू-मुस्लिम नफरत का नया दौर शुरू हुआ जो लगातार पाकिस्तान के विभाजन तक लगातार दुश्मनी के रूप में जारी रहा है। अंग्रेज यही चाहते थे कि हिन्दू-मुसलमानों में ऐसी दरार पैदा कर दी जाए जो उनकी हुकूमत और नीतियों के लिए मील का पत्थर साबित हो। इतिहास बताता है कि अंग्रेज अपनी इस नीति में पूरी तरह इसलिए सफल रहे क्योंकि जिन्ना जैसा देशद्रोही और पदलोलुप राजनेता उनके मन मुताबिक कार्य करने लगा था।

1939 में वायसराय से कांग्रेस ने जो मांग भारत की आजादी के संदर्भ में रखी थी उसे वायसराय ने मानने से मना कर दिया था जिसके खिलाफ कांग्रेस की आठ प्रांतों में गठित सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया और अंग्रेजों ने अपनी शर्त के मुताबिक कांग्रेस नेताओं को झुकाने का षड्यंत्र रचा था, उसमें वे पूरी तरह कामयाब रहे, लेकिन अंग्रेजों की शतरे  को उसी का कांग्रेस ने 7 जुलाई, 1940 को कार्यसमिति की बैठक, जो पूना में हुई थी (इतिहस में पूना प्रस्ताव के रूप में दर्ज) में स्वीकार करते हुए कहा गया कि ब्रिटिशा राज सत्ता को कांग्रेस मदद देने के लिए तैयार है लेकिन युद्ध खत्म हो जाने के बाद भारत को पूरी तरह आजाद करना होगा। कांग्रेस की इस मांग को वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने नहीं माना। युद्ध की वजह से अंतरराष्ट्रीय हालात अति गंभीर  होते जा रहे थे। ब्रिटिश शासन को लगा कि भारतीयों को लगातार दरकिनार किया जाता रहेगा तो हालात और भी नाजुक हो सकते हैं।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने भारत के राजनीतिक गतिरोध दूर करने के नाम पर एक नया दिखावा किया। सर स्टैफन क्रिप्स को भारत भेजा। 22 मार्च, 1942 को क्रिप्स भारत पहुंचे। उन्होंने अपने प्रवास के दौरान हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के प्रतिनिधियों से मुलाकात की और पांच प्रस्ताव भारतीयों के सामने रखे गए। ये प्रस्ताव 1940 के प्रस्तावों से अच्छे थे लकिन इतने अच्छे नहीं थे कि भारतीय नेताओं को संतुष्ट कर पाते।

गांधी ने इन्हें सिरे से खारिज कर दिया और 5 जूलाई 1942 को-‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की घोषणा कर दी। इस आंदोलन ने भारतीयों को सीख दी कि भारत का हित जिसमें हो उसके लिए आपसी मतभेद और मनभेद भुला कर एक स्वर में आवाज बुलंद करनी चाहिए। दूसरी बात, आजाद देश से ही अवाम की प्रगति, विकास और खुशहाली का राह खुलती है। तीसरी सीख यह लेने की जरूरत है कि वतन के लिए कोई भी बड़े से बड़ा बलिदान देने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।

अखिलेश आर्येन्दु


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