सामयिक : अभी साफ नहीं तस्वीर
इस समय लोक सभा चुनाव (Lok Sabha Election) को लेकर कई तरह के मत हमारे सामने आ रहे हैं। सबसे प्रबल मत यह है कि भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अपने सहयोगी दलों के साथ तीसरी बार भारी बहुमत से सरकार में लौट रही है।
सामयिक : अभी साफ नहीं तस्वीर |
कुछ लोग प्रधानमंत्री के 370 भाजपा के और सहयोगी दलों के साथ 400 सीटें मिलने तक की भी भविष्यवाणी करने लगे हैं। दूसरी ओर, विपक्ष इसे खारिज करते हुए कहता है कि भाजपा चुनाव हार रही है और वह 200 सीटों से नीचे चली पाएगी।
विपक्ष भाजपा की आलोचना करती है, नरेन्द्र मोदी पर सीधे प्रहार भी करती है, पर अपने समर्थकों और भाजपा विरोधियों के अंदर भी विश्वास नहीं दिला पाती कि वाकई वह भाजपा से सत्ता छीनने की स्थिति में चुनाव लड़ रहे हैं। आईएनडीआईए गठबंधन (इंडिया) की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से नेताओं के छोड़कर जाने का कायम सिलसिला इस बात का प्रमाण है कि पार्टी के अंदर कैसी निराशा और हताशा है। तो फिर इस चुनाव का सच क्या हो सकता है? आखिर 4 जून का परिणाम क्या तस्वीर पेश कर सकता है? इस चुनाव की एक विडंबना और है। भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का एक वर्ग स्वयं निराशाजनक बातें करता है।
व्यक्तिगत स्तर पर मेरी ऐसे अनेक लोगों से बातें होती हैं, जो चुनाव में जमीन पर हैं या वहां होकर लौट रहे हैं। इनमें ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है जिनमें उत्साह या आशावाद का भाव न के बराबर मिलता है। वे बताते हैं कि जैसी दिल्ली में या बाहर हवा दिखती है धरातल पर वैसी स्थिति नहीं है। जब उनसे प्रश्न करिए कि धरातल की स्थिति क्या है तो सबके उत्तर में कुछ सामान बातें समाहित होती हैं, गलत उम्मीदवार के कारण लोगों के अंदर गुस्सा या निराशा है, गठबंधन को सीट देने के कारण अपने लोगों के अंदर निराशा है, गठबंधन ने ऐसे उम्मीदवार खड़े किए हैं जिनका बचाव करना या जिनके लिए काम करना भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए कठिन हो गया है आदि। कुछ लोग अनेक क्षेत्रों में जातीय समीकरण की समस्या का उल्लेख भी करते हैं। एक समूह यह कहता है कि आम कार्यकर्ताओं और नेताओं की सरकार में उपेक्षा हुई है, उनके काम नहीं हुए हैं, उनको महत्त्व नहीं मिला है और अब लोगों का धैर्य चूक रहा है।
यहां तक कि जिस तरह के लोगों को पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा या टिकट दिया गया है उनसे भी लोग असहमति व्यक्त करते हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं समर्थकों के साथ विपक्ष की बातों को मिला दिया जाए तो निष्कर्ष यही आएगा कि भले भाजपा 400 पार का नारा दे, लेकिन यह हवा हवाई ही है। किंतु क्या यही 2024 लोक सभा चुनाव की वास्तविक स्थिति है? यह बात सही है कि अनेक राज्यों, जिनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल आदि को शामिल किया जा सकता है वहां पार्टी के अंदर कई जगह उम्मीदवारों को लेकर विरोध है। कुछ उपयुक्त लोगों को टिकट न मिलना तथा ऐसे सांसदों को फिर से उतारना जिनको लेकर कार्यकर्ता नाराजगी प्रकट करते रहे हैं विरोध का एक बड़ा कारण है। साथी दलों ने भी भाजपा के लिए समस्याएं पैदा की है। उदाहरण के लिए बिहार में लोजपा ने ऐसे उम्मीदवार उतारे जो परिवारवाद का साक्षात प्रमाण है और भाजपा के लोगों के लिए इनका बचाव करना कठिन है।
कुछ साथी दलों ने प्रभाविता और साक्षमता की जगह व्यक्तिगत संबंध और परिवार को टिकट देने में प्रमुखता दिया। बिहार के जमुई में प्रधानमंत्री मोदी स्वयं प्रचार के लिए गए और वहां भाजपा के लोगों ने पूरी ताकत लगाई। इसका असर भी हुआ। बावजूद यह प्रश्न किया जा रहा है कि किसी नेता के बहनोई या 26 साल की एक लड़की को, जिसके पिता साथी दल में नेता हैं उनको हम अपना नेता या प्रतिनिधि मानकर कैसे काम करें? स्वर्गीय रामविलास पासवान की राजनीति परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी रही। जद (यू) की ओर से भी ऐसे कई उम्मीदवार हैं, जिन्हें भाजपा और राजग के परंपरागत कार्यकर्ता और समर्थक स्वीकार नहीं कर रहे। भाजपा के भी कुछ ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनके बारे में नेता कार्यकर्ता कह रहे हैं कि हम पर उन्हें थोप दिया गया है। झारखंड में भी बाहर से लाकर टिकट देने और ऐसे उम्मीदवार को खड़ा करने, जिनको भाजपा पहले नकार चुकी हो समस्या पैदा कर रही है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि 4 जून का परिणाम भी इसी के अनुरूप आएगा।
यह सही है कि अगर भाजपा और राजग में उम्मीदवारों के चयन में ज्यादा सतर्कता बरती जाती, स्थानीय नेतृत्व के चयन की सही तरीके से जांच होती तो स्थिति पूरी तरह वैसी ही उत्साहप्रद होती जैसी चाहिए। बावजूद देशव्यापी व्याप्त अंतर्धारा क्या है? 10 वर्षो की नरेन्द्र मोदी सरकार का प्रदर्शन, प्रधानमंत्री की स्वयं की छवि, वर्षो तक संगठन परिवार द्वारा हिंदू समाज के बीच किए गए सकारात्मक कार्य, 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा, विरोधियों द्वारा हिन्दुत्व को लेकर उपेक्षा या प्रहार का व्यवहार तथा अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों का वोट लेने के लिए विपक्षी दलों की प्रतिस्पर्धा भाजपा के पक्ष में ऐसा आधार बनाती है जिसका कोई विकल्प नहीं। भाजपा के समर्थकों में एक बड़ा वर्ग विचारधारा के कारण जुड़ाव रखता है और पिछले कुछ वर्षो के कायरे के कारण हिन्दुओं के अंदर हिन्दुत्व एवं भारतीय राष्ट्रभाव की चेतना प्रबल हुई है।
वह बहस करते हैं कि आखिर भाजपा नहीं होती तो क्या अयोध्या में राम मंदिर बनता और ऐसी प्राण प्रतिष्ठा होती? वे धारा 370 से लेकर समान नागरिक संहिता, तीन तलाक कानून, नागरिकता संशोधन कानून आदि की चर्चा करते हैं। नागरिकता संशोधन कानून का तो आईएनडीआईए के ज्यादातर दलों ने विरोध किया है। उन्हें लगता है कि घातक अल्पसंख्यकवाद पर अगर किसी पार्टी की सरकार द्वारा नियंत्रण लगा है तो भाजपा ही है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रभावों के कारण जिन माफियाओं पर सरकारें उनके समुदाय के कारण हाथ डालने से बचती थी, वे मटियामेट हुए हैं, सड़कों पर नमाज पढ़ना बंद हुआ है। स्वाभाविक ही उन्हें लगता है कि आने वाले समय में कोई पार्टी अगर इन सब पर काम कर सकती है तो वह भाजपा ही है। दूसरी ओर सामाजिक न्याय एवं विकास को मोदी सरकार ने जिस तरह से व्यावहारिक रूप दिया है उसका बड़ा आकषर्ण समाज के हर वर्ग में है।
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