विमर्श : सनातन को समावेशी बनाने का अवसर
सनातन-धर्म पर सवाल उठाने या उसके मूल पर हमले करने की रवायत नई नहीं है, वह बहुत पुरानी है।
विमर्श : सनातन को समावेशी बनाने का अवसर |
जब से सनातन जीवन मूल्य उत्तर में सिंधु नदी और दक्षिण में हिंद महासागर के विशाल भूभाग में रहने वाले बाशिंदों के सोचने-विचारने से लेकर जीवन के सभी क्रिया-कलापों में समाहित रहे हैं, इसकी मान्यताओं को लेकर मचे घमासानों का भी अपना लंबा इतिहास रहा है। अब चूंकि यह सनातन है, ‘शात’ है, तो आने वाले युगों और शताब्दियों तक ने एक खास समय में मानव-समाज के उचित-अनुचित व्यवहारों को समझने के लिए इसे झकझोरते रहे हैं। इनके निशान सनातन के बर्तावों में होने वाले युगानुकूल बदलावों में देखे जा सकते हैं। इनके बाद या साथ, सनातन ही बचता रहा है। इसलिए कि उसकी धुरी मन-वाणी कर्म की पवित्रता, ईमानदारी, किसी सजीव को चोट पहुँचाने से बचने, सद्भावना, दया, धैर्य, सहनशीलता, आत्म-संयम, उदारता और तपस्या जैसे गुण हैं। इन्हीं गुणों को आत्मसात करना धर्म है, जो मिल कर सनातन धर्म बनाता है।
यह सनातन धर्म वर्ग, जाति या संप्रदाय से अलग सभी हिंदुओं पर समान रूप से लागू होने वाले कर्त्तव्यों या धार्मिंक रूप से निर्धारित प्रथाओं का ‘शात’ या पूर्ण रूप है। इस प्रकार, सनातन धर्म हिंदू धर्म के ‘शात’ सत्य और शिक्षाओं का पर्याय बन गया है, जिसे न केवल इतिहास से परे और अपरिवर्तनीय व अविभाज्य माना जाता है। इसे गैर-सांप्रदायिक भी माना जाता है।
सनातन धर्म के सकारात्मक एवं कथित नकारात्मक पक्षों को समझने की कोशिश शंकराचार्य से लेकर आज शशि थरूर तक जारी है और आगे भी रहेगी। आखिर सनातन का ओर कहां से है? दामोदर सावरकर इसका संबंध श्रुतियों, (वेद, उपनिषद्) से हासिल किए गए प्रत्यक्ष ज्ञान एवं स्मृति (उपवेद, तंत्र) के आधार पर सहेजे गए ज्ञान से जोड़ते हैं। इसलिए वे सनातन धर्म को वैदिक धर्म कहने की छूट देते हैं। उनका मानना है कि भारतवर्ष के अधिकतर हिंदू धर्म की इसी पद्धति से जुड़े हैं, लेकिन इनके अलावा अन्य हिंदू भी हैं, जो कुछ श्रुति, कुछ स्मृति या कुछ पुराणों के अंश को आंशिक रूप से या पूरी तरह से खारिज करते हैं। सावरकर कहते हैं कि लेकिन यदि आप हिंदुओं के धर्म को केवल बहुसंख्यकों का धर्म मानते हैं और इसे रूढ़िवादी हिंदू धर्म कहते हैं, तो विभिन्न विधर्मी समुदाय स्वयं के हिंदू होने के नाते बहुसंख्यकों द्वारा इसे हिंदुत्व को हड़पना मानते हैं। इस पर वे अपनी नाराजगी जताते हुए उसका अनुचित बहिष्कार तक करने लग जाते हैं। इसलिए उनका कहना है कि ‘अधिकांश हिंदुओं के धर्म को प्राचीन नाम, सनातन धर्म या श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त धर्म या वैदिक धर्म द्वारा बेहतर रूप में दर्शाया जा सकता है; जबकि शेष हिंदुओं के धर्म को उनके संबंधित और स्वीकृत नामों जैसे सिख धर्म या आर्य धर्म या जैन धर्म या बुद्ध धर्म से दर्शाया जाता रहेगा। इसलिए वैदिक या सनातन धर्म स्वयं में हिंदू धर्म का एक संप्रदाय मात्र है। इस तरह, हिंदू धर्म हिंदुत्व-जो कि एक मुकम्मल इतिहास है-उससे ही व्युत्पन्न एक अंश या एक हिस्सा है।’
सनातन और हिंदुत्व धर्म को विस्तार से समझने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि तमिलनाडु के एक युवा मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांटने वाला विचार मानते हुए, इसे खत्म कर मानवता और समानता को बढ़ावा देना बताया था। उन्होंने यह भी कहा था,‘जिस तरह हम मच्छर,डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म करते हैं, उसी तरह इसे समाज से पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए।’ हालांकि बाद में उन्होंने अपने को संशोधित करते हुए कहा कि सनातन धर्म समाज में गैरबराबरी बढ़ाने वाला विचार है और वे उसके खात्मे की बात कर रहे थे, न कि उनके मानने वालों के खात्मे की। वहीं, द्रमुक के एक वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री ए. राजा ने तो उदयनिधि से भी आगे जा कर सनातन को ‘एड्स’ और ‘कोढ़’ तक कहा था। एक और द्रमुक नेता ने ‘सनातन को तमिलनाडु से बहिष्कृत कर देने’ की बात कही जबकि यहां सनातनी या हिंदू आबादी 87 फीसद है। निश्चित रूप से उदयनिधि सहित द्रमुक नेताओं के वक्तव्य निंदनीय हैं और इन्हें वापस लेना चाहिए, अन्यथा देश अपने कानून के मुताबिक कार्रवाई करेगा।
द्रमुक नेताओं के इन बयानों ने सियासी ध्रुवीकरण को तेज कर दिया, जो लाजिमी ही था। इन पर तेज एवं अपेक्षित प्रतिक्रिया हिंदू जमात के न केवल जाहिल वर्ग से बल्कि पढ़े-लिखे तबकों से भी प्रचुर मात्रा में हुई। बुद्धिजीवियों ने इसे खास धर्म के खिलाफ ‘नफरती’ भाषण माना और देश के मुख्य न्यायाधीश से कानून के मुताबिक मंत्री उदयनिधि पर कार्रवाई की मांग की। बिहार और उत्तर प्रदेश में उन पर मुकदमे भी दर्ज हुए। सूबे के राज्यपाल से मंत्री उदयनिधि की बर्खास्तगी की मांग उठी तो उनके मुख्यमंत्री पिता एमके स्टालिन को बेटे के भाषण में कुछ भी गलत नहीं लगा, जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को यह बेहद नागवार गुजरा और उन्होंने भाजपा से सनातन के खिलाफ विषवमन पर सटीक प्रतिक्रिया देने का निर्देश दिया। हिंदू धर्म के संतों तक ने अपने हिसाब से हिंसक-अहिंसक भाषा में प्रतिक्रियाएं दीं। यहां तक कि शिया-सुन्नी संप्रदायों के अग्रणी लोगों ने भी कहा कि उदयनिधि के भाषण नफरती हैं। इसके बाद तो वाद-विवाद की शुरुआत हो गई और आसन्न चुनावों के होने या उसके बहुत बाद तक इसके जारी रहने की उम्मीद है। इसलिए इससे ध्रुवीकरण होना है।
प्रतिक्रियाओं के इस घमासानी वातावरण में किसी वक्तव्य के औचित्य-अनौचित्य को जांचने का संयम और विवेक पीछे छूट जाता है। पर यहां सवाल यह भी कि जब सनातन धर्म का एक अंश भर हिंदू धर्म है तो फिर हिंदुओं में इसे लेकर इतनी व्यापक प्रतिक्रिया क्यों हुई? इसलिए कि पिछली सदी से ही सनातन धर्म को ब्राह्मण धर्म या हिंदू धर्म माना जाने लगा। हिंदूवादी संगठनों की तरफ से इसे वैिक धर्म होने का दावा किया जाने लगा है। सनातन धर्म में व्यक्ति की जाति, उसके लिंग और सामाजिक आधार पर छुआछूत से लेकर उसके साथ गैरबराबरी का एक अमानवीय विभाजन था। सनातन के आलोचकों-राममोहन राय, दयाशंकर सरस्वती, अम्बेडकर और पेरियार तक का मानना है कि ये सब विकार उसमें तभी से थे जब धर्म के रूप में वह स्थापित हुआ था। ‘रघुपति राजाराम’ की प्रार्थना करने वाले महात्मा गांधी तक को छुआछूत के खिलाफ खड़ा होना पड़ा था। अम्बेडकर को सनातनी धर्म के सिद्धांतकार महर्षि मनु की पुस्तक ‘मनुस्मृति’ जलानी पड़ी और विवश होकर बौद्ध धर्म में शामिल होना पड़ा था। तमिलनाडु में पेरियार का तो पूरा जीवनकर्म ही सनातन को खारिज कर पिछड़ों-दलितों-महिलाओं के उत्थान को समर्पित था। यही बाद में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) की बुनियाद बना।
दरअसल, समाज में जाति व्यवस्था और इसी आधार पर गैरबराबरी बहुत लंबे समय से कायम है, जो हद तक अमानवीय है। इसका खामियाजा भी भारत को हर दौर में भुगतना पड़ रहा है। हालांकि आजादी के बाद से ही सरकारों की तरफ से इस दिशा में काफी प्रयास हुए हैं, जो जारी रहने चाहिए। विश्व की एक शक्ति बनने की तरफ अग्रसर भारत के लिए यह समय विरोध में इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली पर टंटा करने के बजाए सनातन की बची बुराइयों को खत्म करने का है। इसे केवल राजनीतिक मुद्दा बनाने के बजाय, सनातन को जीवन-धर्म के प्रगतिशील मूल्यों से समन्वित कर उसे युगानुरूप बनाना चाहिए। इसे संविधान में वर्णित समतापूर्ण समाज बनाने के एक और अवसर के रूप में देखना चाहिए। इसे सनातन धर्म और मजबूत ही होगा।
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