चुनाव प्रबंधन : योगी से सीखें ममता दीदी

Last Updated 15 Jul 2023 01:41:41 PM IST

विशुद्ध तौर पर कहें तो राजनीतिक एकाधिकार के लिए पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में कहीं अधिक विद्रूप रूप धारण कर गई है। देखा जा रहा है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पों की संस्कृति खास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में हाल के कुछ वर्षो में यहां कुछ ज्यादा ही फली-फूली है।


चुनाव प्रबंधन : योगी से सीखें ममता दीदी

प. बंगाल में पंचायत चुनाव के दौरान जिस तरह से हिंसा की खबरें सामने आई और तीन दर्जन से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, उनसे इस बात की पुष्टि होती है कि दीदी यानी ममता बनर्जी की सरकार सत्ता की हनक को बरकरार रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। आज भले ही प. बंगाल में टीएमसी पंचायत चुनाव में जीत का जश्न मना रही है, लेकिन इस जश्न में उन परिवारों की चीत्कार का कोई मायने नहीं है, जिनके परिजन चुनावी हिंसा के शिकार हो गए। निश्चित रूप से खून से सने पोलिंग बूथ, टूटी मतपेटियां और बुलेट-बम की खौफनाक तस्वीरें भी जीत के जश्न में कहीं खो जाएंगी क्योंकि ये सब बंगाल की नियति से जुड़ गई हैं। शायद इसीलिए आम लोगों के बीच योगी के यूपी में शांतिपूर्ण चुनाव की चर्चा जोर पकड़ने लगी है। लोग कहने से नहीं चूक रहे कि बंगाल की दीदी को यूपी के सीएम योगी से चुनाव प्रबंधन सीखना चाहिए।

ऐसे तो बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन अगर हम आजादी के बाद की बात करें तो 1960 के दशक के अंत में प. बंगाल की राजनीति में वाम मोर्चा  ताकतवर दल के रूप में उभरा, जिसके कारण राजनीतिक हिंसा की संस्कृति स्थापित हुई। वाम मोर्चे ने जैसे-जैसे कांग्रेस के प्रभुत्व को चुनौती देना शुरू किया, दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें रोजमर्रा की घटनाएं बन गई। 17 मार्च, 1970 को पूर्व बर्धमान जिले में सैनबाड़ी नरसंहार, जहां कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हत्या की गई, और 27 फरवरी, 1971 को कोलकाता में ऑल इंडिया फॉर्वड ब्लॉक के अध्यक्ष हेमंत बसु की हत्या से जुड़ी यादें आज भी ताजा हैं। इन घटनाओं ने राजनीतिक सत्ता को बरकरार रखने के लिए ‘बंदूक संस्कृति’ की नींव रखी।

1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया। उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं। एनसीआरबी की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख भी है कि 2010-19 के बीच प. बंगाल में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई और प. बंगाल इस मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर रहा। इससे पहले 2003 के पंचायत इलेक्शन चुनाव की बात करें तो 80 मौत हुई थीं। 2008 में 45 मौतें। ताजा चुनाव में 36 लोगों की मौत की खबर है। हालांकि यह आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। निश्चित रूप से ममता बनर्जी के शासनकाल में बंगाल अराजक हो गया है, और चुनावी हिंसा में कई दर्जन लोगों ही हत्या हो जाती है, तो ऐसे में योगी का यूपी देश के लिए नजीर तो बन ही गया है।

देश का सबसे बड़ा राज्य होने के बावजूद यूपी में  2019 के लोक सभा चुनाव से लेकर हाल में संपन्न निकाय चुनाव तक में एक भी सीट पर हिंसा नहीं हुई, लोगों के मारे जाने की खबर तो बहुत दूर की बात है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां लोक सभा की 80, विधानसभा की 403 सीटें हैं। हाल में संपन्न निकाय चुनाव में मेयर की 17, निगम पाषर्द की 1420, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष की 199, सदस्य की 5327, नगर पंचायत अध्यक्ष की 544 और सदस्य की 7177 सीटों पर चुनाव हुए लेकिन एक भी सीट पर हिंसा की मामूली घटना भी सुनने को नहीं मिली।

यूपी के मुख्यमंत्री योगी हिंसा के मामले में जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम करते हैं। इसलिए आज यूपी शांतप्रिय प्रदेश है। यूपी से नजरें फेरने वाले उद्योगपति भी यहां उद्योग लगाने को बेताब हैं। जाहिर सी बात है इससे रोजगार के लाखों अवसर सृजित होंगे और करोड़ों युवाओं को काम मिलेगा। बहरहाल, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश की चुनावी संस्कृति जहां शांति व सौहार्द के रंगों से रंगी है वहीं ममता की लचर कार्यपण्राली की वजह से बंगाल के चुनावों में खूनी खेल आम बात हो गई है। पच्चीस करोड़ उत्तर प्रदेश चुनावों को लोकतंत्र के उत्सव के तौर पर मनाते हैं, वहीं 10 करोड़ आबादी वाले बंगाल में हिंसा का तांडव मचा हुआ है। ऐसे में लहुलूहान बंगाल के लिए योगी का शांतिप्रिय यूपी नजीर है। कहने से कोई गुरेज नहीं कि दीदी को वायलेंस पसंद है तो योगी को साइलेंस। 

प्रवीण कुमार


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