आस्था : कला सृजन की नवदृष्टि और नवरात्रियां
मनुष्य इस प्रकृति की असीम शक्तियों की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। मनुष्य के अंदर ऊर्जा के अनंत अलौकिक तल और कलात्मक रहस्य विद्यमान हैं, जिनका मूल स्रोत नि:संदेह यह प्रकृति की विराट सत्ता है।
आस्था : कला सृजन की नवदृष्टि और नवरात्रियां |
मुख्य रूप से योग और तंत्र के द्वारा मनुष्य को उसके शरीर में उपस्थित अव्यक्त शक्तियों से सीधा साक्षात्कार करा देना ही हमारी संस्कृति का परम लक्ष्य रहा है। भारतीय दर्शनों में भी पुरु षार्थ की परम सिद्धि का एकमात्र साधन मनुष्य को ही माना गया है। प्रकृति अपने त्रिगुणात्मक स्वरूप और गुणातीत मूल स्वरूप में आद्यशक्ति कहलाती है।
मनुष्य की रचनात्मक प्रवृत्ति के समान ही प्रकृति भी अपने आरंभिक बिंदु से स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए जिस तत्त्व का वरण करती है वह कला तत्त्व ही है। आम जन के लिए कला का अर्थ सौंदर्य अभिव्यक्ति का एक माध्यम है चाहे वह शब्द रूप हो, दृश्य रूप हो या ध्वनि रूप, लेकिन विशेष अर्थ में कला जीवन के भौतिक तल पर मनोरंजन या ऐंद्रिय विषयक संवेदनात्मक अनुभूति है वहीं मानसिक तल पर यह विचार का अनंत रूप है, लेकिन अध्यात्मिक तल पर कला एक विशुद्ध ज्ञान है।
यह सम्पूर्ण विश्व परम चेतना रूपी शिव, जिसे आधुनिक विज्ञान स्थितिशील ऊर्जा कहता है और परम ऊर्जा रूपी शक्ति, जिसे गतिशील ऊर्जा कहता है, के सहज योग की ही कलात्मक अभिव्यक्ति है। कला तत्व इस पूरी प्रकृति की मूल चित शक्ति है। सृष्टि विज्ञान के अनुसार विश्व के परम तत्व जिसे हम शिवसंकल्प कहते हैं काल के अनंत विस्तार के स्वरूप महाकाल हैं।
व्याकरण के अनुसार भी ‘कल’ धातु से दो शब्द निष्पन्न हुए है-पहला है कला और दूसरा है काल। एक से अनेक होने की स्वत: प्रेरणा से शिव तत्त्व में जिन कलाओं की उपस्थिति सहज रूप से घटित होती है उन्हीं से सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मांड की रचना हुई है। महाकाल की शक्ति महाकाली है जो रात्रि की सर्वव्यापी रूप हैं। तंत्र विज्ञान इसे ही अंतरिक्ष कहता है। यह अवकाश का वह रूप है जो सूर्य के आभाव में रात्रि के गहन अंधकार रूप में दिखाई देता है। सांख्य दर्शन इस विराट प्रकृति को तीन गुणों से युक्त मानता है जो तमोगुण, रजोगुण और सत्तोगुण है और जिनका ™ोय रूप क्रमश: महाकाली जो इस सृष्टि का आरम्भ बिंदु है, महालक्ष्मी जो यह संपूर्ण दृश्य जगत है और महासरस्वती जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की प्रेरक ज्ञान शक्ति हैं।
प्रकृति के इन तीन मूलभूत रूपों में आगे चलकर तीन अलग-अलग भेद उत्पन्न होते हैं, जो प्रकृति की अनंत शक्तियों के कुल नौ रूप बनते हैं। भारतीय संस्कृति में शक्ति को मातृ रूप में स्वीकार्य किया गया है जो अपनी कलात्मक अभिव्यक्तियों में विश्व सृजन का कारण तत्त्व है। सबसे पहले ऋग्वेद में शक्ति का वर्णन वेद वाणी सरस्वती के रूप में किया गया है तत्पश्चात उषा और अदिति के रूप में हुआ जो समस्त भूतों की जननी है। वैदिक वाङ्गमय में अंतिम महिमामयी शक्ति रात्रि है, जिसे पराशक्ति काली के रूप में जाना जाता है।
शंकराचार्य ने सौंदर्यलहरी और आनंदलहरी में शक्ति के जिस तत्त्व को प्रधानता दी है तंत्र ने उसी को दुर्गा का संबोधन दिया है। यही आद्य शक्ति सारे विश्व प्रपंचों को रचने वाली, स्वयं में धारण करने वाली और उसका नाश करने वाली है। मूल स्वरूप में यही इच्छा, क्रिया और ज्ञान का त्रिविध रूप हैं। तंत्र अपने स्वरूप में समस्त का दर्शन है। तंत्र विज्ञान पूरे विश्व को तीन अलग-अलग तलों के विस्तार में देखता है, जिसे शिव तत्त्व, विद्या तत्त्व और आत्मतत्व कहा गया है। सांख्य दर्शन में वर्णित कुल पच्चीस तत्त्वों में चौबीस प्रकृति तत्व और एक पुरुष तत्त्व को तंत्र आत्मतत्व कहता है, जो दरअसल प्रकृति के पंचतत्व और इसके पांच अलग-अलग आयामों का गुणनफल है। चेतना को तंत्र छठे तत्त्व के रूप में मान्यता देता है और इस तरह कुल छह तत्वों और उनके छह आयामों के गुणनफल के आधार पर तंत्र कुल छत्तीस मुलभूत तत्वों की बात करता है।
हमारी संस्कृति में नवरात्रि की अवधारणा के पीछे भी तंत्र के यही सिद्धांत काम करते हैं। साल के बारह महीनों में नवरात्रि चार अलग-अलग चरणों में आती हैं जो अपनी कुल संख्या में छतीस होती है। दरअसल, नौ अंक की अपनी विशेष महत्ता है। यह अकारण नहीं की भारतीय वैदिक वाङ्ग्मय में अंकों की कुल संख्या नौ ही मानी गई क्योंकि प्रकृति के तीन मुलभूत गुणों का तीन अलग-अलग आयामों में विस्तार नौ की संख्या पर ही पूर्ण होती है। सौंदर्य शास्त्र में भी कुल नौ रसों की ही परिकल्पना है।
यहां तक की यौगिक प्रक्रियाओं में भी शरीर, मन और चित शुद्धि के लिए नौं दिनों की एक नियत समय सीमा मान्य है, जिसमें ऊर्जा प्रवाह अपनी एक विशेष वर्तुल को पूरा कर लेता है। दरअसल, कला के समष्टिगत स्वरूप को देखने और परखने की तंत्र की दृष्टि बहुत व्यापक है। तंत्र बिंदु को शिव और रेखा को शक्ति का प्रतीक मानता है। अकेला बिंदु शांत और स्थिर रहता है, रेखा ही उसे चंचल बनाती है और इन दोनों का संयोग संसार के कलात्मक अभिव्यक्ति का एकमात्र कारण बनता है। रेखा और बिंदु के संयोग से बनने वाले समस्त कोण ही लोक है और लोक ही शक्ति के पटल है। ठीक अथरे में तंत्र कला को बाह्य लक्ष्य में नहीं बल्कि इसके आतंरिक लक्ष्य में स्वीकार करता है।
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