आम चुनाव 2024 : समीकरण बिठाने में जुटा विपक्ष
लोकसभा चुनाव 2024 में होगा, पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विकल्प बनने की व्याकुलता विपक्ष में नजर आने लगी है।
आम चुनाव 2024 : समीकरण बिठाने में जुटा विपक्ष |
आश्चर्यजनक यह भी है कि यह व्याकुलता प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय दलों के दिग्गजों में नजर आ रही है। शायद इसका एक कारण कांग्रेस का आंतरिक मुश्किलों से घिरा होना हो। क्षेत्रीय नेताओं को लगता हो कि पराजयों से पस्त कांग्रेस अपना घर दुरुस्त कर भाजपा को चुनौती देने के लिए खड़ी हो, उससे पहले ही अपनी मोर्चाबंदी कर ली जाए, ताकि देश के सबसे पुराने दल के पास भाजपा विरोधी ध्रुवीकरण के समर्थन के अलावा कोई विकल्प ही न बचे।
बेशक ऐसा 1996 और 97 में हो चुका है, जब लोक सभा में सबसे बड़े दल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस ने जनता दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार केंद्र में बनवाई। लोक सभा की कुल सदस्य संख्या के 10 प्रतिशत से भी कम सांसदों वाले जनता दल की ओर से तब पहले एच.डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने और कुछ महीने बाद इंद्र कुमार गुजराल। कांग्रेस समर्थन से बनी सरकारें केंद्र में हमेशा अल्पजीवी ही रहीं, पर क्षेत्रीय दलों के दिग्गजों को लगता है कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के कांग्रेस की जगह ले लेने के बाद हालात बदल गए हैं। यही कारण है कि मोदी विरोधी ध्रुवीकरण में जुटे ये क्षेत्रीय नेता कांग्रेस से सलाह तो दूर, संवाद की जरूरत महसूस नहीं करते।
कुछ अरसा पहले तक तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस मोर्चे पर बहुत सक्रिय रहीं। वह देश भर में घूम-घूम कर क्षेत्रीय नेताओं से मिलीं, पर कई बार दिल्ली आने पर भी कांग्रेस नेतृत्व से मिलने से बचती रहीं। करीबियों के भ्रष्टाचार के मामलों में फंसने के बाद ममता की राष्ट्रीय सक्रियता कम हुई है, पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव की सक्रियता बढ़ गई है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार के मोहल्ला क्लीनिक देखने वाले केसीआर उनके साथ पंजाब जाकर आंदोलन के दौरान मृत किसानों के परिजनों को आर्थिक मदद दे चुके हैं। पिछले सप्ताह केसीआर पटना जा कर भाजपा से दूसरी बार दोस्ती तोड़ने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी मिले। बिहार के सबसे बड़े दल राजद के प्रमुख लालू यादव से भी वह मिले। उपमुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी तो पटना दौरे में केसीआर के साथ रहे ही।
बिहार यात्रा में केसीआर ने गलवान घाटी में शहीद हुए सैनिकों के परिजनों को आर्थिक मदद भी दी, लेकिन नीतीश कुमार के साथ प्रेस कांफ्रेंस में वह भाजपा मुक्त भारत का आह्वान करना नहीं भूले। मोदी के विकल्प के नाम का सवाल समय आने पर टाल देने की रणनीति समझी जा सकती है, लेकिन दो साल से भी ज्यादा समय से केसीआर क्षेत्रीय दलों का संघीय मोर्चा बनाने के लिए देश भ्रमण यों ही तो नहीं कर रहे। देश के सबसे नये राज्य तेलंगाना पर केसीआर ने जैसी राजनीतिक पकड़ बनाई है, वह चौंकाने वाली है। विपक्ष वहां नाममात्र के लिए ही है। तेलंगाना के कायाकल्प के उनके दावे भी आकर्षित करते हैं।
अगर वह अपने पुत्र केटीआर को तेलंगाना की बागडोर सौंपने और अपने लिये राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा पाल रहे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 42 लोक सभा सीटों वाले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता के मुकाबले 17 सीटों वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर के लिए अन्य क्षेत्रीय दलों में अपनी स्वीकार्यता बनाना आसान तो नहीं होगा। वैसे अगले लोक सभा चुनाव से पहले तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होना है। ममता और केसीआर का कांग्रेस से छत्तीस का आंकड़ा है। इसलिए वैसी कोई संभावना बनने पर कांग्रेस इनके नाम पर आसानी से तो नहीं मानेगी। लोक सभा सीटों के लिहाज से विपक्ष शासित राज्यों में पश्चिम बंगाल के बाद 40 सीटों वाला बिहार आता है। पहली बार 2013 में जब नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित किए जाने पर भाजपा से पुराना रिश्ता तोड़ लालू यादव और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बचाई थी, तब भी उनमें संयुक्त विपक्ष के प्रधानमंत्री प्रत्याशी की संभावनाएं देखी गई थीं, पर मोदी लहर ने कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी।
नीतीश ने अगला विधानसभा चुनाव तो महागठबंधन के साथ लड़ा, पर बीच कार्यकाल पाला बदल कर वापस राजग में चले गए। राजग में रहते हुए ही 2019 का लोक सभा चुनाव भी लड़ा और 2020 का विधानसभा चुनाव भी। भाजपा ने नीतीश को मुख्यमंत्री तो बना दिया, पर जद (यू) को तीसरे नंबर का दल बनवा दिया। नतीजतन नीतीश पिछले महीने फिर पाला बदल कर महागठबंधन में आ गए। प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर नीतीश सीधा जवाब देने से बचते रहे, लेकिन पटना में लगे उनके होर्डिंग्स: ‘प्रदेश ने देखा, देश देखेगा’-सब कुछ बयां कर रहे हैं। भविष्य की राजनीतिक संभावनाओं के मद्देनजर भी कांग्रेस से अनावश्यक तल्खी समझदारी नहीं है।
सो, दिल्ली दौरे के पहले ही दिन नीतीश कुमार राहुल गांधी से मिले। मिले तो वह आप समेत कई दलों के नेताओं से, पर उनमें एक ही समानता है कि वे भाजपा विरोधी खेमे में हैं। इसलिए मोदी विरोधी ध्रुवीकरण में अहम भी। राष्ट्रीय राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं वाला एक और खिलाड़ी भी है। वह जब से राजनीति में आए हैं, खुद को मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने का मौका मौका तलाशते रहते हैं। वह खिलाड़ी हैं अरविंद केजरीवाल।
दिल्ली के बाद इस साल पंजाब में भी सरकार बन जाने पर आप को क्षेत्रीय दल कहे जाने पर आपत्ति हो सकती है, पर उसकी सीमाएं भी स्पष्ट हैं। विचित्र स्थिति है कि एक दल, जिसकी दो राज्यों में सरकार है, उसकी लोकसभा में उपस्थिति शून्य है। राजनीति में कई बार छुपे रुस्तम बड़े खिलाड़ियों पर भारी पड़ते हैं। बीजू जनता दल सुप्रीमो एवं 21 लोक सभा सीटों वाले ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक उसी श्रेणी में हैं। ओडिशा का चुपचाप कायाकल्प करने वाले पटनायक ने कभी भी जोड़-तोड़ या टकराव की राजनीति में दिलचस्पी नहीं दिखाई। दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने एक बार अनौपचारिक बातचीत में कहा था, राजनीति असीमित संभावनाओं का खेल है। आज कौन जानता है कि 2024 का चुनावी परिदृश्य कैसा होगा और समीकरण बनने पर किस क्षेत्रीय नेता की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को पंख मिल जाएंगे।
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