मीडिया : ‘टीआरपी’ का सच
एक शाम कई चैनल अपने अपने गाल बजाने लगे कि वो ‘अव्वल’ हैं, कि वो ‘अव्वल’ हैं, कि रेटिंग्स के हिसाब से वे कई बरस से टॉप पर हैं।
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एक ने कुछ इस तरह अपने को टॉप पर बताया : हम उस चैनल से तीन गुना है और वो वो वो तो हमारे आगे कहीं ठहरते ही नहीं फिर जिसे पीछे बताया गया था वो आगे आया उसने कहा कि असल में हम ही अव्वल हैं, वो तो हमारे आगे कहीं टिकता ही नहीं। फिर तीसरा चैनल बोला कि हमारे प्राइम टाइम के कई कार्यक्रम टॉप पर हैं। फिर पहले वाले ने फिर कहा कि हमारे दुश्मनों ने हमारी ‘रेटिंग्स’ (टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग पाइंट्स) में जालसाजी कराई। एक रेटिंग एजेंसी व मुंबई के कई बड़े पुलिस अफसरों से मिलीभगत करके रेटिंग्स में हेराफेरी कराई। आज वो जेल में है, आंकड़े बाहर हैं, और हम नंबर वन हैं, कइयों से मीलों आगे हैं..।
मैं उनके आंकड़े देख चकित था क्योंकि वे अपनी रेटिंग्स तो बताते थे लेकिन उनको कुल कितने दर्शक देखते हैं, कितनी देर देखते हैं, यह नहीं बताते। ‘रेटिंग्स’ के खेल में कई झोल शुरू से रहे हैं :‘टीआरपी’ या चैनलों की ‘दर्शकता’ बताने वाली एजेंसी पर आरोप रहा कि एक खास चैनल की रेटिंग्स कम करने के लिए रित दी गई, पुलिस को सेट किया गया। बाद में उनमें से कुछ पकड़े भी गए।
एक एंकर तो साफ कहता रहा कि वह अपने नये चैनल के साथ आगे आ रहा था कि जमे जमाए चैनलों ने उसको डाउन करने की सोची और इस तरह रेटिंग एजेंसी को अपने पक्ष में काम करने को मजबूर किया। उस चैनल को टारगेट किया गया उसके मालिक को गिरफ्तार किया गया। बाद में उसे जमानत मिली जब वह बाहर आया। उसके अनुसार उसका कसूर था कि वो ‘राष्ट्रवादी’ और ‘देशभक्त’ था। चैनलों में आपसी स्पर्धा नई बात नहीं। नई बात है उसका ‘आपराधिक’ हो उठना। अपने को आगे रखने के लिए ‘कुछ भी’ कर गुजरना। यह चैनलों को हर हाल में अपने को ‘अव्वल’ बताना है क्योंकि चैनलों ने ऐसा न किया तो उनको कौन पूछेगा? कौन विज्ञापन देगा? कौन प्राइम टाइम के विज्ञापनों का रेट बढ़ाएगा? बड़ा पैसा न होगा तो चैनल कैसे चलेंगे? एंकरों को करोड़ों कैसे मिलेंगे? लेकिन अपने को ‘अव्वल’ बताने वाले भूल जाते हैं कि टीवी प्रसारण का तरीका बदल चुका है। हम ‘एंटेना’ वाले टीवी की जगह ‘डीटीएच’ से आते चैनलों को देखते हैं, और कि डीटीएच के जमाने में रेटिंग तय करने के लिए किसी एजेंसी को देना ‘उल्टे बांस बरेली’ ले जाने जैसा है।
जब देशभर में डीटीएच अनिवार्य हो चुका हो, अधिकांश जनता डीटीएच के माध्यम से चैनल देखती हो तब हर चैनल की दर्शक संख्या का आंकड़ा भी हर डीटीएच नेटवर्क वाले के पास हो सकता है और वही सही हो सकता है। ऐसे में अगर कोई एजेंसी कुछ चुनिंदा दर्शकों के टीवी सेटों में अलग से मीटर लगा कर आंकड़े पता करती फिरे और दावा करे कि इस इस चैनल की ये ‘रेटिंग’ ही असली है, तर्कसंगत नहीं दिखता। मसलन, आपकी तरह मैं भी एक ‘डीटीएच नेटवर्क’ का ‘पैकेज’ लेकर अपने पसंदीदा चैनलों को देखता हूं। मुझे लगता है कि डीटीएच वालों को मालूम है कि मैं किस चैनल को कितने समय तक देखता हूं?
मेरा मानना है कि ‘डीटीएच नेटवर्क’ ऐसी ‘एजेंसी’ हैं, जो हर चैनल की ‘व्यूअरशिप’ की खबर रखने में सक्षम हैं। डीटीएच वालों के पास ऐसे टूल्स व तरकीबें हो सकती हैं, जिनसे ‘कौन, किस चैनल को, कितने समय देखता है’ बताने वाला आंकड़ा आसानी से एकत्र किया जा सकता है। डीटीएच नेटवकरे द्वारा जरा से प्रयत्न से जब ‘सही चैनल दर्शकता’ जानी जा सकती है, तो अगल से टीआरपी एकत्र करने वाली एजेंसी की जरूरत क्या?
अगर डीटीएच वालों को ऐसा करने का हक नहीं है, तो उनको दिया जा सकता है, या कोई उनकी कोई ‘केंद्रीय नोडल एजेंसी’ बनाई जा सकती है, जो अपने सारे पैकेज के चैनलों को देखने के ‘डिजिटल आंकड़ों’ को विश्लेषित किया करे और उसके निष्कषरे को सार्वजनिक किया करे। टीआरपी के आंकड़ों में ‘हेराफेरी’ खत्म करना है तो डीटीएच नेटवकरे को ‘रीयल टाइम’ में ‘व्यूअरशिप’ तय करने का काम दिया जा सकता है। लेकिन चैनलों को शायद डीटीएच वालों द्वारा चैनलों की ‘टीआरपी’ को तय करना स्वीकार्य नहीं क्योंकि डीटीएच नेटवर्क वाले अपने ‘दर्शकों’ के ‘रीयल टाइम’ के आंकड़े ‘डिजिटल’ तरीके से निकालते हैं, तो सब चैनलों के अपने को अव्वल बताने की पोलपट्टी खुल जाएगी।
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