राजनीति : राजशाही का परफेक्ट मॉडल
यह संयोग ही नहीं है कि जिस रोज अखबार में उत्तराखंड में चमोली में हाल में आई आपदा में मौत का आंकड़ा पचास पर पहुंच जाने की खबर छपी, उसी रोज इक्कीस वर्षीया पर्यावरणवादी कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी की भी खबर छपी।
राजनीति : राजशाही का परफेक्ट मॉडल |
फ्राईडे फॉर फ्यूचर, इंडिया नाम के पर्यावरण रक्षा मंच की संस्थापकों में दिशा, जो पिछले वर्षो में पर्यावरण संबंधी कई अभियानों से जुड़ी रही थीं, को पिछले कई महीनों से जारी किसान आंदोलन के लिए समर्थन खास तौर पर दूसरे देशों में समर्थन जुटाने के लिए जारी एक टूलकिट में कुछ फेरबदल करने के लिए गिरफ्तार किया गया है।
इस टूलकिट का उपयोग अन्य लोगों के अलावा पर्यावरण रक्षा की अंतरराष्ट्रीय आवाज बन चुकी स्कूली छात्रा ग्रेटा थनबर्ग ने भी भारतीय किसानों के आंदोलन के लिए समर्थन जताने के लिए किया था। दिल्ली पुलिस का दावा है कि दिशा किसान आंदोलन के लिए समर्थन की आड़ में रची गई किसी अंतरराष्ट्रीय भारत-विरोधी साजिश की सरगना है। अब पता चला है कि पिछली जुलाई में पर्यावरण व वन मंत्री की शिकायत पर यूएपीए की धारा-18 (षड्य़ंत्र) के आरोप में दिशा के संगठन ‘फ्राईडे फॉर फ्यूचर’ की वेबसाइट को ब्लॉक कराने के लिए पुलिस की साइबर यूनिट ने कार्रवाई शुरू की थी।
संगठन का कसूर था कि सरकार द्वारा जारी विवादास्पद, पर्यावरण प्रभाव आकलन नोटिफिकेशन के ड्राफ्ट का विरोध कर रहा था। क्या ये तानाशाही के ही लक्षण नहीं हैं? दुर्भाग्य से संसद के अपने ताजातरीन भाषणों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक तरह से स्पष्ट ही कर दिया है कि तानाशाही के ये लक्षण भी अब उनके राज का नया नॉर्मल हैं। पहले राज्य सभा और फिर लोक सभा में प्रधानमंत्री के भाषण में दो चीजें महत्त्वपूर्ण रूप से नई थीं। पहली, जो मौजूदा निजाम तानाशाही मिजाज को दिखाती है, किसान आंदोलनकारियों पर ‘आंदोलनजीवी’ कहकर उनका हमला बोलना था। बहरहाल, अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी के तानाशाही हमले का दायरा और बढ़ गया है, और इस हमले की धार और तीखी हो गई है। बेशक, राज्य सभा में किसान आंदोलन के सिलसिले में इस संज्ञा का इस्तेमाल किए जाने के बाद, देश भर में ही नहीं, बल्कि शेष दुनिया में भी उठे शोर के सामने, मोदी ने अपनी मुद्रा में कुछ सुधार करने की कोशिश की। किसान आंदोलन के संदर्भ में उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्होंने किसानों के आंदोलन को आंदोलनजीवी नहीं कहा था। उनका आशय तो सिर्फ आंदोलनों में ही जीवन तलाश करने वाले परजीवियों से था, लेकिन इस रस्मी स्पष्टीकरण के बावजूद साफ है कि इस नफरती बोल की ब्यूटी ही यह है कि इसके जरिए जनहित के हरेक आंदोलन को इस तर्क से अवैध बनाया जा सकता है कि इसके पीछे जनहित नहीं, आंदोलनजीवियों यानी आंदोलन चलाने वालों का निजी स्वार्थ है! पर वह इतने पर ही नहीं रुकते हैं। इससे आगे बढ़कर इसे विचारधारा से जोड़ना भी नहीं भूलते हैं, और इस तरह अपने तथा अपनी सरकार के विरोध को, बहुत ही नरमी बरतें तो देश में राजनीतिक विरोधियों के और कठोर हों तो विदेशी राष्ट्र-विरोधी ताकतों के षड्य़ंत्र का मामला बनाने का रास्ता खोल देते हैं। दूसरी इतनी ही महत्त्वपूर्ण चीज, जो मौजूदा शासन के तानाशाहाना दिमाग को दिखाती है, किसान आंदोलन के बीच से उठ रही इसकी आलोचनाओं के जवाब के तौर पर सामने आई कि अगर ये कृषि कानून किसानों के हित के लिए हैं, तो उनके मांगे बिना ही क्यों बनाए गए? और जब वे कह रहे हैं कि उन्हें नहीं चाहिए, तो इन कानूनों को वापस क्यों नहीं ले लिया जाता?
अब प्रधानमंत्री के इस पूरी तरह से झूठे या अर्ध-सत्य पर आधारित दावे में हम नहीं जाएंगे कि दहेज-विरोधी कानून से लेकर संपत्ति में महिलाओं के अधिकार के कानून तक, सुधार के कितने ही कानून किसी के भी मांग किए बिना ही बनाए गए थे! इसके सहारे प्रधानमंत्री मोदी न सिर्फ दावा करते हैं कि तथाकथित सुधार के इन कानूनों को भी बनाना जरूरी था बल्कि यह सिद्धांत ही पेश करते नजर आते हैं कि सुधार के लिए, प्रगति के रास्ते पर बढ़ने के लिए, शासक को प्रभावित होने वालों की मांग के बिना ही, ऐसे कानून बनाने पड़ते हैं! यानी शासक को अपने ही विवेक से निर्णय लेने होते हैं, न कि जनता की इच्छा से! भारतीय जनतंत्र के इतिहास में, प्रजा के लिए निर्णय लेने के राजा के दैवीय और निरंकुश अधिकार का, इससे नंगई से दावा पहले किसी ने नहीं किया होगा। यह राजशाही का परफेक्ट मॉडल है। हिंदू राष्ट्र में तो वैसे भी, निरंकुश शासन ही होना है!
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