मीडिया : ‘रामायण’ पर ‘महाभारत’
कोरोना ने हमें कुछ पुराने समय में लौटाना शुरू कर दिया है। शायद इसीलिए, दूरदर्शन जल्द ही ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘चाणक्य’ तथा ‘ब्योमकेश बख्शी’ जैसे सुपरहिट सीरियलों को फिर से दिखाने जा रहा है।
मीडिया : ‘रामायण’ पर ‘महाभारत’ |
लेकिन ज्यों ही यह खबर आई त्यों ही कांग्रेस की एक एमपी ने अपने ट्वीट से सरकार का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि रामायण को दिखाने से साफ है कि इस सरकार की प्राथमिकताएं कैसी हैं? और, देखते-देखते, जैसा कि इस दौर में होता रहा है, ‘रामायण’ के पुनप्र्रसारण पर नये सिरे से एक नया ‘महाभारत’ शुरू हो गया कि रामायण को दिखाना उचित है कि अनुचित?
एक बहस में एक एंकर ने रामायण के निंदकों से पूछा कि आप को रामायण के साथ-साथ ‘महाभारत’, ‘चाणक्य’ और ‘ब्योमकेश बख्शी’ का प्रसारण ठीक लगता है और ‘रामायण’ को दिखाना गलत लगता है। यह तो बड़ी ही ‘दोगली’ आलोचना है। सरकार के पक्षकारों ने रामायण के आलोचकों को जवाब देते हुए कहा कि सरकार कोरोना से लड़ने के लिए अलग प्रयत्न कर रही है, वह ‘राहत पैकेज’ दे रही है, कोरोना के टेस्ट और इलाज की सुविधएं बढ़ा रही है तथा राज्य सरकारों से मिलकर दिन-रात युद्ध स्तर पर काम कर रही है। ‘लॉकडाउन’ भी उनमें से ऐसा ही एक कदम है। इसी ‘लॉकडाउन’ की वजह से इन दिनों में लोग अपने-अपने घरों में बंद हैं। उनकी मांग पर ही हम उनको रामायण आदि सीरियल दिखाने जा रहे हैं। इसमें क्या गलत है?
कहने की जरूरत नहीं कि रामायण को दिखाने को लेकर की जा रही ऐसी आलोचना शुद्ध अवसरवादी आलोचना है। सब जानते हैं कि ‘रामायण’ को लेकर एक टीवी सीरियल बनाने का आदेश स्वयं राजीव गांधी की सरकार ने दिया था। और इस तरह, रामायण को राजीव गांधी बनवाएं तो ठीक, दूरदर्शन से दिखवाएं तो ठीक लेकिन उसी ‘रामायण’ सीरियल को तैंतीस बरस बाद अब भाजपा दिखवाए तो गलत। ये क्या बात हुई? सच तो यह है कि यह ‘रामायण’ न कांग्रेस की है, न भाजपा की है, बल्कि ‘रामानंदी रामायण’ है, जो टीवी की ‘कल्चरल इंडस्ट्री’ का प्रोडक्ट है और उसे एक प्रोडक्ट की तरह ही देखा जाना चाहिए। फिर भी सीरियल में दिखने वाले राम हों या मानस के राम, एक सांस्कृतिक अनुभव के रूप में सबके हैं। उनको जो चाहे जिस भाव से ले सकता है :जाकी रही भावना जैसी! प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!!
तैंतीस बरस पहले जब ‘रामायण’ प्रसारित हुई थी, तब भी कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों ने उसके प्रसारण की निंदा की थी। उनकी नजर में वह एक ‘हिंदू सांप्रदायिकतावादी’ और ‘पुनरुत्थानवादी कथा’ थी और इस तरह घोर ‘प्रतिक्रियावादी’ थी। ऐसे ही तमाम किस्म के आरोप उस समय लगाए गए थे। इन मूर्खतापूर्ण आरोपों के बावजूद रामानंद सागर के बनाए इस सीरियल ने तब के लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड दिए थे और सारे आलोचक व्यर्थ कर दिए। दर्शकों के लिए टीवी सेट मंदिर बन गए। एपीसोड आने से पहले लोग अपने टीवी सेटों की पूजा करते। मालाएं, प्रसाद और पैसे तक चढ़ाते और प्रसंगानुसार रोते-हंसते। विज्ञापन बरसते। कहने की जरूरत नहीं है कि यह दूरदर्शन का स्वर्ण युग था।
इस सीरियल की समीक्षा करते हुए इस लेखक को उन्हीं दिनों यह भी मालूम हुआ था कि इसे सिर्फ हिंदू ही नहीं देखते थे, बल्कि मुसलमान, सिख, ईसाई आदि भी खूब देखते थे और पाकिस्तान तक में रामायण बहुत पॉपुलर थी। इसका कारण रामकथा की वह चली आती ‘लोकप्रियता’ थी जो आम हिंदू समाज में पहले से ही मौजूद थी और है। ऐसे में ‘रामायण’ के दोबारा प्रसारित किए जाने की समकालीन आलोचना सिद्धांतवादी कम और अवसरवादी अधिक नजर आती है। जरा देखिए : जब कांग्रेस ने रामायण बनवाई और दिखाई तो लेफ्ट बुद्धिजीवियों ने निंदा की क्योंकि तब कांग्रेस सत्ता में थी और आज जब भाजपा सत्ता में है और उसी रामायण को दोबारा दिखाना चाहती है, तो कांग्रेस लेफ्ट की भाषा बोलकर अपने ही नेता के बनाए कार्यक्रम की निंदा में रत है।
अब इन्हें कौन समझाए कि रामायण न कांग्रेस की थी, न है, न हो सकती और न भाजपा की है, या हो सकती है। वह है तो, जनता की है। और रामयण को दोबारा दिखाने की दूसरी वजह दूरदर्शन की अपनी दयनीय स्थिति भी है। गौरतलब है कि आज उसके पास एक भी ऐसा फ्लैगशिप प्रोग्राम नहीं है, जो उसे कमाऊ और कंपटीटिव बनाए। इसलिए इन अवसादपूर्ण दिनों में रामायण को देख कर लोगों को कुछ साहस मिलता है और दूरदर्शन की कुछ कमाई भी होती है तो किसी को क्यों जलना चाहिए?
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