बिहार : बैकफुट पर भाजपा
बिहार विधानसभा में ‘पुराने प्रारूप में एनपीआर’ और ‘एनआरसी की कोई जरूरत नहीं’ के प्रस्ताव को मंजूरी देने की ऐतिहासिकता के साथ साफ हो गया कि जीत के चटखारे के साथ बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का वजूद जिस वैशाखी पर टिका है, वह आज भी नीतीश कुमार के चेहरे से साबका रख रही है।
बिहार : बैकफुट पर भाजपा |
इसलिए कि कद्दावर रणनीतिकार समझे जाने वाले भाजपा नेताओं की मौन सहमति के साथ मंगलवार को सदन में जो कुछ भी हुआ अपरोक्षत: केंद्र सरकार और भाजपा नेतृत्व को मिली चुनौती से कम नहीं है।
सवाल है कि क्या यह भाजपा की अधोगति है? जवाब शायद भाजपा के रणनीतिकारों के लिए भी आसान न हो। खासकर उनके लिए जिनकी पहचान भाजपा में हार्डलाइनर के तौर पर होती है। इसलिए भी कि हर वक्त उन्हें हिंदुत्व की आंधी चलती दिखती है। संयोग से ऐसा है नहीं। भाजपा के लिए फिलवक्त झारखंड विधानसभा चुनाव भाजपा रणनीतियों का दिखाता वह आइना है, जहां से संदेश साफ है कि समय एकला चलो का नहीं है। स्थानीयता और स्थानीय चेहरों के आगे भाजपा को झारखंड में मिली पराजय हर पल बिहार भाजपाइयों को कोई भी नया कदम उठाने या नई रणनीति बनाने से रोकती है। वजह साफ है कि राज्य में मौजूदा राजनीतिक हालात जातीय जकड़न से छुटकारा पाते नहीं दिखते।
नीतीश को माइनस करके भाजपा राजनीति करना चाहे तो प्रभावी जातीय आवरण में माई के 30 प्रतिशत वोट बैंक के साथ अति पिछड़ों का 28 प्रतिशत और कुर्मी, कोयरी व धानुक के 8 प्रतिशत यानी 66 प्रतिशत वोट बैंक के विरुद्ध कमर कसना होगा। ऐसा इसलिए कि देश स्तर पर विपक्ष के लिए एक ही मुद्दा प्रभावी है-भाजपा हटाओ मुद्दा। इस मुद्दे पर विपक्ष की एकता की कई मिसाल राज्यों के चुनाव में मिलती रही हैं। मंगलवार को बिहार विधानसभा में ‘पुराने प्रारूप में एनपीआर’ और ‘एनआरसी के मुद्दे पर भाजपा को सहमति देने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। वह भी तब जब राज्य के सारे हालात आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा, जदयू व लोजपा के साथ जाने की सिफारिश करते दिख रहे हों। ऐसे में विधानसभा में एनपीआर व एनआरसी के मुद्दे पर जदयू के साथ खड़े हो कर भाजपा ने राजद, कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के मुद्दे को डायल्यूट करते अपने गठबंधन के साथियों की नीतियों का समर्थन कर उनके वोट बैंक में इजाफा कराने का ही काम किया। भाजपा की एक मजबूरी यह भी थी कि अगर वह सदन में रहकर विरोध भी करती तो प्रस्ताव पास हो जाता और भाजपा अलग-थलग पड़ जाती। वैसे भी एनडीए की रणनीति के अनुसार आगामी चुनाव में जदयू उन सीटों पर विशेष रूप से लड़ने जा रही है जहां मुस्लिम मत अधिक है। खासकर सीमांचल की सीटों से जदयू को लड़ा कर भाजपा एनडीए के लिए न केवल जीत के आंकड़े को बड़ा करना चाहती है, बल्कि अपरोक्ष रूप से जदयू की सेक्युलर छवि को लिटमस टेस्ट से भी गुजारना चाह रही है। इस पैंतरे से जदयू किन्हीं अनहोनी परिस्थितियों से बचाव करती मुस्लिम आक्रामकता को भी कम करना चाहती है।
विपक्ष की राजनीति की तरफ से देखें तो उनके द्वारा लाया गया कार्यस्थगन सरकार के स्तर पर स्वीकार करते ही उनका नहीं रह गया। इसी वजह से पुराने प्रारूप पर एनपीआर के प्रस्ताव को मंजूरी के बाद विपक्ष का हौसला कोई जश्न मनाने की तरह नहीं दिखा। जदयू की रणनीति की तरफ से सोंचे तो नीतीश द्वारा यह सब कोई अचानक लिया फैसला नहीं है। विपक्ष के जो तेवर कुछ दिनों से राजधानी में देखे जा रहे थे उससे साफ था कि विपक्ष का कार्यस्थगन आना है। कार्यस्थगन को स्वीकार कर इसे बीच बहस में छोड़ जाने के पीछे जदयू एक तीर से दो निशाने साधना था। एक, भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना कर देखना चाहा कि गठबंधन की राजनीति भाजपा के लिए कितनी मुफीद है।
वह भी इस संदर्भ में कि भाजपा के भीतर लगातार एनडीए में बड़ा भाई बनने का दबाव बनाया जा रहा था। इस मकसद को पूरा करने के लिए भाजपा द्वारा लोक सभा में किए गए त्याग की भी चर्चा होती थी। यही वजह भी है कि जदयू ने नया राग अलाप कर भाजपा को फिलवक्त ‘खामोश’ करने में तो सफलता पा ली है। दूसरा, जदयू ने यह कदम उठा कर उस दूरी को भी कम करने में कामयाबी पा ली है, जो भाजपा के साथ जाते ही राजद, कांग्रेस या अन्य दलों से बन गई थी। जदयू के लिए एक तरह से रणनीतिक जीत भी है। वर्तमान राजनीतिक संदभरे में कहें तो फिलहाल भाजपा बैकफुट पर है। वजह भी साफ है। अकेले प्रदेश भाजपा के पक्ष में न तो जीत के जातीय समीकरण बन रहे हैं, और न ही कोई स्थानीय चेहरा ही मजबूत हो पाया है, जिसके पीछे संपूर्ण भाजपा कदमताल करती नजर आए।
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